गोपिन के मन भी हरषाये।
पावन मंद सुगंधित फूलन,
मस्त बयार चली मनभाये।।
वेणु बजे तब मोहन जोहत,
है वृषभानु लली सुन धाये।
आकर कदंब छाँव तले तब,
गोपिन का मन भी मुसकाये।।
रास रचा कर मोह रहे नित,
गोकुल नंदन प्रीत लुटाये।
आज सखी हिय में जब सोचत,
देख निहाल भई मन भाये।।
आज हुआ मन पुष्पित होकर,
बाग खिले अब मस्त फैलाये ।
देख धरा सजती अब मोहक,
मस्त मनोहर जी ललचाये ।।
- सरोज गर्ग ‘सरु’,
नागपुर (नागपुर)