हम पाँच भाई बहन, सभी पर है नाज़, आखिर जिंदगी का हर लम्हा इनसे ही तो बनता है खास यदि आबादी बिस्फोटक ना हो तो मुझे लगता है भाई बहनों से भरा परिवार होना ही चाहिए जिंदगी बेपनाह खूबसूरत हो जाती है.. फिलहाल विस्फोटक आबादी में बच्चे एक ही अच्छे।
हम पाँचो भूलकर भी चाय नहीं पिया करते थे। कभी कभार ज्यादा बन भी जाए, मम्मी के कहने पर भी नहीं। दिमाग मे बैठ गया था चाय पिना अच्छी बात नहीं। मम्मी हार कर ज्यादा बनी चाय गौरी-बसंती के खरी मे डाल दिया करती हमारी अपनी गऊ माता। बच्चे थे तो हर जगह चाय पीने से छूट मिल भी जाती थी साथ में ढेर सारी तारीफ़ भी।
दिसंबर २ हज़ारी, कड़ाके की ठंड, बेपनाह बरसात, शीतल पुरवैया के झोके खाते, दोनों तरफ लहलहाते खेतों को आँखो मे समाते, खुशनुमा मौसम का मज़ा लेते, सुबह-सुबह लुधियाना से निकली हमारी कार रूकी सीधे वाहेगुरुजी के धाम, स्वर्ण मंदिर। पवित्र लंगर के लिए.. बैठे हम सब साथ मे, मेरी प्यारी गीता दी (ननंदजी) जीजाजी (नंदोईजी) हिमानी मेरी बीटिया (जेठानीजी की बेटी) प्यारे से शशांक (आज के इंजिनियर) कल के केजी के गोलू बेटा (मेरी गीता दीदी के सुपुत्र), साथ मे हम दोनों यानी मै और मेरे पति।
सबके समक्ष स्टील का बड़ा सा कटोरा आया, साथ मे पारले-जी बिस्किट, सफाई ऐसी भूले नहीं भूलती। उस कटोरे में ढ़ेर सारी चाय, मै इतनी ठंड के बावजूद जो कभी चाय छूती भी नहीं थी उसके समक्ष वाहेगुरुजी के प्रसाद के रूप में कटोरा भर चाय, मामूली कटोरा भी नहीं। गीता दीदी और इनका हँस हँस कर हुआ बूरा हाल। जीजाजी तथा बच्चे भी मंद मंद मुस्कुराए, मुझे देखकर। चाय जो नहीं पीती थी फिर सामने तो थे कटोराभर चायप्रसाद।
मेरी जानकारी मे वो पहली चायप्रसाद इलायची वाली जिसे मैंने माथे चढ़ाकर पी लिया वो भी कटोराभर। नि: संदेह, वाहेगुरू जी का आशीष है लगंर का विधान, उस चायप्रसाद का अमृत स्वाद मैं आज भी नहीं भूली। २४ साल बाद भी।