रवींद्रनाथ त्यागी की रचनाओं में क्लासिक सौंदर्य दिखता है : ज्ञान चतुर्वेदी
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नागपुर। व्यंग्यकार रवींद्रनाथ त्यागी की रचनाओं में क्लासिक सौंदर्य दिखता है, जो हर किसी के बस की बात नहीं है। उनके व्यंग्य में निर्मल हास्य है। यह कथन प्रख्यात व्यंग्यकार डा. ज्ञान चतुर्वेदी ने व्यंग्यधारा समूह की सत्तावनवीं आनलाइन विमर्श गोष्ठी की पुनर्पाठ श्रंखला में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा। बीसवीं सदी के महत्वपूर्ण और आधुनिक व्यंग्य को स्थापित करने वाले व्यंग्यत्रयी के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी जी की पांच चयनित रचनाओं पर विमर्श का आयोजन व्यंग्यधारा द्वारा किया गया।
डा. ज्ञान चतुर्वेदी अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए रवीन्द्र नाथ त्यागी जी की रचना "आग का दरिया" को केंद्र में रखकर कहते हैं कि त्यागीजी हवा में गांठ बांधते थे। उनके व्यंग्यों में क्लासिक सौंदर्य को देखकर हरिशंकर परसाई ने कहा था- ‘इतना विट संपन्न गद्य मुझसे लिखते नहीं बनता। त्यागीजी नायिकाओं पर लिखने के लिए बदनाम थे। उनकी विशेषता थी अध्ययन और स्मरणशक्ति। उन्होंने संस्कृत साहित्य, इतिहास विशेषकर मुगल इतिहास, अंग्रेजी इतिहास का गहन अध्ययन किया था। उनके पास चमत्कारी वाक्य गढ़ने और कहन की कला थी। उन्होंने त्यागीजी के व्यंग्य ‘आग का दरिया’ पर बात करते हुए उनसे जुड़े संस्मरण भी सुनाए।
इसके पूर्व गोष्ठी की शुरुआत करते हुए प्रमुख वक्ता श्रीकांत आप्टे (भोपाल) ने विचार रखते हुए कहा कि रवींद्रनाथ त्यागी का अंदाज-ए-बयां निराला था। भाषा शैली अलग थी। ये शैली और कहीं देखने को नहीं मिलती। त्यागी के व्यंग्य ‘सुंदरकली’ की समीक्षा करते हुए कहा कि यह छोटी, लेकिन प्रभावी रचना है। हथिनी सुंदरकली के माध्यम से समाज की विसंगतियों और बेड़ियों पर प्रहार किया गया है। इसमें पशु की तुलना में आदमी की दुर्गति को दर्शाया गया है।
व्यंग्यकार कैलाश मण्डलेकर (खण्डवा) ने त्यागी जी महत्वपूर्ण रचना "फूलों वाले कैक्टस" की समीक्षा करते हुए कहा कि रवीन्द्रनाथ त्यागी के सामने व्यंग्य को लेकर नहीं, गद्य की भाषा की चुनौती रही होगी। त्यागीजी ने एक नई भाषा ईजाद की। इस भाषा का लालित्य हमें सीखना होगा। वरिष्ठ साहित्यकार राधाकृष्ण ने कहा था-‘त्यागीजी लाठी से बांसुरी बजाते हैं’। त्यागीजी ने पौराणिक ग्रंथों में कालिदास से लेकर विश्व साहित्य का अध्ययन किया था। दुनिया में क्या लिखा जा रहा है, इसका अध्ययन जरूरी है। दुर्भाग्य से आज चुने हुए जुमलों को जोड़ रहे हैं। कैलाश मण्डलेकर ने त्यागी जी की रचना पर आगे बात करते हुए कहा कि इसमें भाषा और गद्य की उड़ाने हैं, लेकिन व्यंग्य बरकरार रहता है। पूरी रचना में कविता है।
मधु आचार्य आशावादी ने रवीन्द्रनाथ त्यागी की चर्चित रचना "बीच का आदमी " को विभिन्न बिंदुओं को रेखांकित करते हुए कहा कि त्यागी जी ने अपने संग्रह विषकन्या की भूमिका में अपने लेखन के बारे में लिखा है कि प्रफुल्लित होने पर वे कविता और उदास होने पर व्यंग्य लिखते हैं। यह कथन उनकी विसंगतियों, पीड़ा और संत्रास के साथ खड़े होने का परिचायक है। पौराणिक संदर्भों को लेकर उन्होंने प्रचुर मात्रा में व्यंग्य लिखे तात्कालिक राजनीतिक परिदृश्य परिवार नियोजन आदि पर भी प्रहार किया और तीखा लिखा। सामाजिक, आर्थिक आदि विभिन्न पक्षों पर कटाक्ष किया। वे अच्छे कवि और समर्थ व्यंग्यकार थे। व्यंग्य के विश्वविद्यालय थे। उन्होंने त्यागीजी के व्यंग्य ‘बीच का आदमी’ की विवेचना करते हुए इस रचना को मध्यस्थ आदमी की प्रकृति और प्रवृत्ति पर तीखा कटाक्ष माना।
व्यंग्यधारा की पुनर्पाठ गोष्ठी के अंतिम चरण में व्यंग्यकार और व्यंग्य यात्रा के सम्पादक प्रेम जनमेजय ने त्यागी जी की रचना "शोकसभा" को केन्द्र में रखकर कहा कि त्यागीजी का अनुभव विस्तृत और विपुल था। वे जगत की एक-एक नस के ज्ञाता थे। वे विसंगतियों पर चुटकी लेते हैं और आक्रोश भी व्यक्त करते हैं। कंट्रास द्वारा हास्य रचते हैं। वे प्रायोजित साहित्यकार नहीं थे। कमलेश्वर ने उनके बारे में कहा था- त्यागीजी ने कोई माफिया या लेखक संघ ज्वाइन नहीं किया था। त्यागीजी का कहना था-‘मेरे निबंध हल्के-फुल्के और कविताएं गंभीर हैं’। उन्होंने व्यंग्य में भाषा के साथ रचनात्मक प्रयोग किए। लेखन का हर शेड उनके व्यंग्य में नजर आता है। उनके लेखन का प्रिय क्षेत्र नौकरशाही और साहित्य था। उन्होंने नौकरशाही में व्याप्त विसंगतियों को उजागर किया।
कार्यक्रम की शुरुआत में पुनर्पाठ का महत्व को रेखांकित करते हुए अपनी भूमिका में रमेश सैनी ने रवींद्रनाथ त्यागी के साक्षात्कार का उल्लेख करते हुए कहा कि -"व्यंग्य की भाषा आम बोलचाल की होनी चाहिए। संस्कृतनिष्ठ या कठिन भाषा का प्रयोग नहीं होना चाहिए।' उन्होंने कहा कि व्यंग्यधारा समूह ने वरिष्ठ व्यंग्यकारों की स्मृति को बनाए रखने और युवा पीढ़ी को व्यंग्य के संस्कार और प्रकृति से रुबरु कराने हेतु महत्वपूर्ण रचनाकारों की रचनाओं की आलोचकीय दृष्टि और दृष्टिकोण से विशिष्ट और महत्वपूर्ण रचनाओं का पुनर्पाठ आयोजन की परिकल्पना की है। व्यंग्य पुनर्पाठ की यह तीसरी गोष्ठी है। पहली गोष्ठी हरिशंकर परसाई, दूसरी शरद जोशी और तीसरी गोष्ठी रवींद्रनाथ त्यागी पर केंद्रित है। आयोजन के अंतिम सत्र
सवाल-जवाब में श्रीमती अल्का अग्रवाल सिग्तिया (मुम्बई) द्वारा परसाईजी और शरद जोशी से त्यागीजी की भाषा की तुलना के सवाल पर प्रेम जनमेजय ने कहा कि त्यागीजी भाषा का प्रयोग कंट्रास उपस्थित कर हास्य के लिए करते थे, जबकि बाकी व्यंग्यकार भाषा का प्रयोग व्यंग्य के लिए करते हैं। व्यंग्य में भाषा की सावधानी जरूरी है। परसाई और त्यागी की रचनाओं में कई बार भाषा एक जैसे लगती हैं, लेकिन विचारधारा अलग है। युवा व्यंग्यकार टीकाराम साहू ‘आजाद’ (नागपुर) द्वारा यह पूछे जाने पर कि कौनसी चीज त्यागीजी को श्री परसाई और शरद जोशी से अलग करती है, कैलाश मंडलेकर ने कहा कि त्यागीजी का गद्य का सौंदर्य सबसे अलग था।
व्यंग्य की भाषा और गद्य अलग किस्म का था। उनके व्यंग्य का मूल बिंदु आनंद है। उन्होंने आनंददायक गद्य की रचना की। जवाहर चौधरी (इंदौर) के सवाल पर प्रेम जनमेजय ने कहा कि साहित्य की भी राजनीति होती है। शरद जोशी को शरद जोशी पाठकों ने बनाया। जितनी राजनीतिक चेतनासंपन्न पूर्व की पीढ़ी थी, उतने हम नहीं है। राजशेखर चौबे (रायपुर) ने त्यागीजी के सरकारी सेवा में रहते हुए व्यंग्य लेखन के खतरे का सवाल उठाया। इस पर प्रेम जनमेजय ने कहा कि त्यागीजी का कहना था-मुझे बच-बचकर लिखना पड़ता है। डा. सुरेशकुमार मिश्र ‘उरतृप्त’ के सवाल के जवाब भी दिए।
कार्यक्रम के संयोजक डा. रमेश तिवारी (दिल्ली) व संचालन श्री रमेश सैनी (जबलपुर) ने किया। अभिजित.कुमार दुबे (धनबाद) ने व्यंग्यधारा की प्राथमिकताओं पर बात करते हुए सभी अतिथियों और सहभागियों का आभार व्यक्त किया।
व्यंग्यधारा की गोष्ठी में सर्वश्री सेवाराम त्रिपाठी (रीवा), संतोष खरे (सतना), ब्रजेश कानूनगो (इंदौर), कुंदनसिंह परिहार (जबलपुर), अनूप शुक्ल (शाहजहांपुर), बुलाकी शर्मा (बीकानेर), सुनील जैन राही (दिल्ली), शांतिलाल जैन (उज्जैन), राजेन्द्र वर्मा (लखनऊ), बी.एल. आच्छा, (चैन्नई) फारूक आफरीदी (जयपुर), तीरथ सिंह खरबंदा (इंदौर) मलय जैन (भोपाल) रामस्वरूप दीक्षित (टीकमगढ़), डा. महेन्द्र सिंह ठाकुर ( रायपुर), कुमार सुरेश (भोपाल), श्रीमती वीना सिंह (लखनऊ), रेणु देवपुरा (उदयपुर), बलदेव त्रिपाठी (लखनऊ), राकेश सोहम (जबलपुर), आत्माराम भाटी (बीकानेर), मुकेश राठौर (भीकमगांव मप्र), विवेकरंजन श्रीवास्तव (जबलपुर), वीरेन्द्र सरल (धमतरी), हनुमान प्रसाद मिश्र (अयोध्या), सूर्यदीप कुशवाहा, पंकजेंद्र किशोर (दिल्ली), सौरभ तिवारी (दिल्ली) आदि की सहभागिता उल्लेखनीय रही।