नादान चोर
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बड़े बड़े लोग कह गए हैं कि “मैं मैं“ नहीं करना चाहिए। आत्मश्लाघा आत्मा के लिए ठीक नहीं। लेकिन इस सत्य घटना का एक महत्वपूर्ण पात्र “मैं“ ही हूँ। इसलिए “मैं“ अपने “मैं” को छुपा नहीं सकता।
दुसरा महत्वपूर्ण किरदार है “चोर”।
जी हाँ, आपने ठीक ही सुना, चोर। नाम नहीं मालूम, पूछा ही नहीं ।
घटनास्थल- हमारा निवास स्थान। हमारा, यानी मैं और, इस कहानी की नायिका, मेरी सहधर्मिनी, जो घटना के समय अपने बाबुल के घर कलकत्ता गईं हुईं थीं।
दिसंबर की रात, कड़कड़ाती सर्दी, तापमान ४- ५ डिग्री सेल्सियस तक गिर चुका था। रात के दो बजे थे। मैं मस्त दो दो रज़ाई ओढ़ सोया हुआ था। तभी “घन- घन“ आवाज़ से नींद खुली। आवाज़ की ओर नज़र दौड़ाई, देखा, कोई घर के पिछले दरवाज़े का साँकल खोलने की कोशिश कर रहा है।
रात को दो बजे मेहमान! वो भी पिछले द्वार से! चोर ही होगा।
ध्यान से देखा, एक अठारह उन्नीस बरस का नौजवान एक औज़ार से साँकल तोड़ने की कोशिश कर रहा था। चोर है, तो साथ में साथी भी होंगे। आसपास अवलोकन करने पर कोई दिखाई नहीं दिया। यानी अकेले ही चोरी करने आया है।
मेरे शरीर में सिहरन आने लगी। क्या किया जाए? ध्यान से देखा, चोर मेरा ही विंडशीटर पहना हुआ था जो बाहर सुखाने डाला था । बेचारा, इतनी कड़ी मेहनत कर रहा है, इतने ठंड में भी चोरी करने आया। इतना परिश्रमी युवक अगर रात को न आकर दिन को आता तो मैं उसके लिए कुछ नौकरी वगैरह का इंतज़ाम करता।
मैं सोचने लगा, अब जब रात को आया ही है तो कुछ हथियार लेकर ही आया होगा। अब क्या करें?
जिस तरह काँटों को कांटे से निकाला जाता है, उसी तरह डर का इलाज डर से ही किया जाए।
मैंने पास में पड़ी सफेद चादर लपेट ली। फिर ज़ोर से चिल्लाया, “हाऊं, हा हा, हा : हा:, ही ही , ही:, ही:। और नाचने लगा।
चोर महाशय ने अंदर झाँककर देखा। अँधेरे में एक सफ़ेद आकृति अजीबोग़रीब आवाज़ करती हुई हवा में लहरा रही है। रात का सन्नाटा, सायं सायं करती ठंडी हवाएं, और उपर से ये नृत्य करती हुई भूतहा आकृति। इतना कोई भी इंसान के छक्के छुड़ाने के लिए काफ़ी है। बस, फिर क्या था, चोर सिर पे पांव रखकर भागा।
वह पीछे के दिवार को लाँघकर अंदर आया था। आते वक़्त वह बहुत सावधानी से आया था। लेकिन भूत के डर से भागते हुए वह असावधान होकर दीवार को पार करने लगा। परिणाम वही हुआ जो होना था, धड़ाम से गिर पड़ा।
गली के आवारा कुत्ते जाग गए, और उनके भौंकने की आवाज़ चारों ओर गूँज उठी। फिर क्या था, लोग घर से बाहर निकल आए, उन्हें चोर दिखा, जो भागने की फ़िराक़ में था, लेकिन पकड़ा गया।
फिर जो धुलाई हुई, जो धुलाई हुई कि बंदा ज़िंदगी भर याद रखेगा।
वह मेरा विंडशिटर पहना हुआ था। पड़ोसी की नज़र उस पर पड़ी, उसने विंडशीटर पहचान लिया और चिल्लाया, “अरे मत मारो, ये तो डॉक्टर साहब हैं“।
लोग रुक गए। सब को लगा कि गलती से मुझे मार रहे हैं।
मैं पीछे खड़ा था। “मैं यहाँ हूँ पीछे, इस बंदे ने मेरा विंड शीटर चुराया है“। मैं चिल्ला कर बोला। यह सुन लोगों ने फिर से उसकी धुनाई शुरू कर दी।
कोई ने पुलिस को बुला लिया। पुलिस आई और चोर को पकड़ कर थाने ले गए। फिर पता चला कि चोर चोरी करने के पहले ठंडी दूर करने शराब पी रखी थी। इसलिए वह दीवार से कुदते वक्त सम्हल नहीं पाया और गिर पड़ा।
हमने चोर को पूछा, “क्यों रे, शराब पीता है, चोरी करता है। शर्म नहीं आती?”
“साहब, कान पकड़ता हूँ, अब से चोरी करते वक़्त शराब नहीं पिऊँगा”। उसने भोलेपन से जवाब दिया।
सप्ताह भर बाद इस कहानी की नायिका बाबुल के घर से वापस लौटी। उनकी आँखों से कोई बात नहीं छुपाई जा सकती।
आते ही घर के तामझाम में व्यस्त हो गई।
“तुम्हारी विंडशिटर कहाँ है“? कहा ना, उनकी नज़रों से कोई बात नहीं छुपती।
सब सुनकर देवीजी ने कहा,
“अच्छा किया कि तुमने चोर को अपनी विंडशिटर दे दी। बेचारा इतनी ठंड में चोरी करने निकलता है”।
- डॉ. शिवनारायण आचार्य
नागपुर, महाराष्ट्र