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संवेदना का माध्यम बने भाषा, संघर्ष का नहीं : रवि शुक्ला


भाषा किसी भी समाज की आत्मा होती है। वह न केवल विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम है, बल्कि संस्कृति की संवाहक और भावनाओं की संप्रेषक भी होती है। लेकिन जब यही भाषा राजनीति का औज़ार बन जाए, पहचान का संघर्ष बन जाए और विरोध का आधार बन जाए, तो यह विकास की नहीं, विनाश की ओर संकेत करती है।

महाराष्ट्र — संत ज्ञानेश्वर, संत तुकाराम और छत्रपति शिवाजी महाराज की भूमि — जहाँ शब्दों की गरिमा और मातृभाषा की महिमा को सदैव सम्मान मिला है। जहाँ संत कबीर और तुकाराम के भाव साझा होते हैं। दुर्भाग्यवश, आज उसी भूमि पर भाषा को लेकर टकराव और टकराहट दिखाई दे रही है। मराठी को लेकर अस्मिता की बात हो या हिंदी के विरोध के स्वर – यह मुद्दा अब राजनीतिक गलियारों तक पहुँच गया है।
यह विडंबना ही है कि महाराष्ट्र जैसा राज्य, जो सुशासन, सुसंस्कृति और समन्वय का प्रतीक रहा है, आज भाषा को लेकर राजनीति की चपेट में है। और इस आग को वही लोग हवा दे रहे हैं जिन्हें भाषा की नहीं, सत्ता की चिंता है।

याद रखना चाहिए कि भाषा पर एक दिन का भाषण, एक लेख या ‘आयाराम–गयाराम’ की राजनीति करने से उसका उद्धार नहीं होता। भाषा को सहेजने और संवारने के लिए उसे प्रतिदिन के आचरण में आत्मसात करना पड़ता है।
यह आत्ममंथन का समय है, न कि आत्मविरोध का।

भारत जैसे बहुभाषिक और बहुसांस्कृतिक देश में भाषा को लेकर विवाद अपने आप में एक त्रासदी है। यहाँ कोई भी भाषा ‘प्रतिद्वंद्वी’ नहीं हो सकती, क्योंकि हर भाषा एक नई दृष्टि, नई संवेदना और विशिष्ट सांस्कृतिक दृष्टिकोण को जन्म देती है।

यदि कोई बालक मराठी, हिंदी और अंग्रेज़ी या अन्य भाषाएँ सीखता है, तो वह केवल शब्द नहीं, तीन या उससे अधिक संस्कृतियों, तीन या उससे अधिक सोच की दिशाओं और तीन या उससे अधिक संवाद शैलियों को अपनाता है। उसके विचारों में गहराई, भावों में विविधता और दृष्टिकोण में व्यापकता आती है। भाषा हमारे व्यक्तित्व की मुखरता है – यह सोचने, समझने और अभिव्यक्त करने की शक्ति को विस्तार देती है।
इसलिए विरोध की बजाय संतुलन की आवश्यकता है।

विद्यालयों में राज्य की भाषा (मराठी), राष्ट्र की भाषा (हिंदी) और वैश्विक भाषा (अंग्रेज़ी) का संतुलित शिक्षण ही सच्चे व्यक्तित्व और राष्ट्र निर्माण की नींव है। यदि हम इस दिशा में सार्थक प्रयास करें, तो हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भाषाओं में बाँटी नहीं जाएँगी, बल्कि भाषाओं के माध्यम से जुड़ेंगी।
जब एक विद्यार्थी तुलसीदास की करुणा, तुकाराम की भक्ति और शेक्सपीयर की अभिव्यक्ति को समझने लगे, तब उसकी कल्पना सचमुच बहुआयामी हो जाती है।

आज शहरी विद्यालयों में हिंदी भाषी छात्रों को अपनी मातृभाषा बोलने में संकोच होता है और मराठी भाषी छात्रों को अंग्रेज़ी माध्यम के दबाव में अपनी भाषा पर गर्व नहीं रह गया है। यह स्थिति गंभीर चिंता का विषय है। अंग्रेज़ी के बढ़ते प्रभाव के बीच हमें भारतीय भाषाओं के संरक्षण और विकास के लिए अनुकूल वातावरण बनाना होगा।

यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि भाषा का प्रश्न केवल शिक्षण तक सीमित नहीं है – यह सांस्कृतिक अस्मिता और मानसिक स्वतंत्रता का भी प्रश्न है।
वर्तमान विवाद की जड़ में यह भ्रम है कि किसी एक भाषा को बढ़ावा देने के लिए दूसरी भाषा का विरोध आवश्यक है। यह वैसा ही है जैसे कोई कहे कि सूर्य की रोशनी पाने के लिए चाँद को ढँकना पड़े।
क्या हिंदी का विकास मराठी के ह्रास से जुड़ा है? या अंग्रेज़ी बोलना मराठी से विमुख होना है?
उत्तर है – नहीं।

भाषाएँ कभी प्रतिस्पर्धी नहीं होतीं, वे तो सेतु होती हैं – जो मनुष्यता की ओर ले जाती हैं, समाज को एकजुट करती हैं। भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने तमिल, हिंदी और अंग्रेज़ी तीनों में संवाद करते हुए विज्ञान को जनता तक पहुँचाया।

कवि वसंत बापट ने मराठी के साथ-साथ हिंदी में भी सशक्त लेखन किया।
महात्मा गांधी गुजराती भाषी थे, फिर भी उन्होंने हिंदी के लिए सत्याग्रह किया।
यह विरोधाभास नहीं, बल्कि भारतीयता का सार है।

महाराष्ट्र, जो भारत की आर्थिक राजधानी ही नहीं, एशिया के महत्वपूर्ण केंद्रों में से एक है, उसके सामने ऐसी भाषाई चुनौतियाँ कोई नई बात नहीं। परंतु एक ही प्रकृति की चुनौती का बार-बार आना किसी सभ्य और विकासशील राज्य के लिए उचित नहीं।

आज भाषाओं के नाम पर जो ‘स्थानीय बनाम बाहरी’ की राजनीति की जा रही है, वह केवल चुनावी लाभ का साधन है। भाषा का राजनीतिकरण वस्तुतः भाषा का अपमान है। यदि मराठी को सशक्त करना है, तो उसकी साहित्यिक गुणवत्ता, तकनीकी उपयोगिता और सामाजिक गौरव को पुनर्जीवित करना होगा – हिंदी या किसी अन्य भाषा को नीचा दिखाकर नहीं।

हमें यह समझना होगा कि जब एक बच्चा बहुभाषिक बनता है, तो वह केवल भाषाएँ नहीं सीखता, बल्कि सांस्कृतिक सेतु बन जाता है।
महाराष्ट्र जैसे राज्य से अपेक्षा है कि वह इस विवाद को अवसर में बदले —

जहाँ मराठी का सम्मान हो,
हिंदी का आत्मीय स्वीकार हो,
और अंग्रेज़ी का उपयोग वैश्विक संवाद के लिए हो। 
"भविष्य तभी सुरक्षित होगा जब हम यह कह सकें –
हम भाषाएँ नहीं चुनते,
हम भाषाओं को अपनाते हैं।"
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