बाअदब बंद किया जाए…
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सुना था कि पौराणिक कथाओं के चिन्ह ढूँढने से नजर आ जाते है। मुझे तो बिना ढूँढे ही नजर आया कि दुष्यंत की शकुंतला और सरकार की सरकारी स्कूल की कहानी कुछ कुछ एक सी है। सरकार खुद सरकारी स्कूल को वैसे ही भूल गई है जैसे दुष्यंत शकुंतला को भूले थे। वह तो भला हो दुष्यंत के आभूषण प्रेम का जो उन्हें अपनी मुद्रिका ठीक वैसे ही पहचान आ गई जैसे मेरी बगल वाली आंटी अपने बर्तन पहचान जाती है। अब वे तो महाराज थे। महाराज तो ये भी है, ये भी मतलब सरकार वाले। अंतर केवल यह है कि वे असली थे। चाय से केतली गरम मुहावरा हमारे शहर में बढ़ चढ़कर चलता दिखाई देता है लेकिन सरकार का सरकारी स्कूल किसी हाल चलता नजर नहीं आता है।
मंशा चाहे जो हो लेकिन सरकारी स्कूलों का हाल इन दिनों सड़क सा हो गया है। जैसे सड़क होती तो है लेकिन नजर नहीं आती वैसे ही यह भी होते तो है लेकिन नजर नहीं आते। मैंने याद करने की बहुत कोशिश की तब भी मुझे यह वैसे ही याद नहीं आया जैसे मनुष्य को अपनी गलती याद नहीं आती। याद यह करना था कि आखिर स्कूल को सरकारी स्कूल कहना शुरू हुआ भी तो कब से हुआ। हम यह कह सकते तो बिलकुल कहते कि अंग्रेज़ो के भी पहले से। हालांकि मेरा सामान्य ज्ञान कहता है कि निजी स्कूल के आने के बाद जो निजी नहीं थे वे सरकारी कहे गए। ऐसा मानना एक अच्छा मध्यम मार्ग हो सकता है। मध्यम मार्ग हमेशा ही अच्छा होता है। इसे बीच का रास्ता भी कहा जाता है। यह आर या पार वाक्य का विरोधी वाक्य है। इसे कोई भी अपना सकता है। इसके लिए जरूरी नहीं की आप घर- परिवार,समाज,स्थान आदि जगहों पर बीच वाले हो। अधिक सामाजिक भाषा में कहे तो यह एक धर्मनिरपेक्ष मार्ग है।
सरकारी स्कूलों के लिए भी संभवतः यही मार्ग चुन लिया गया है। जिन सरकारी स्कूल का रुतबा एक समय बिलकुल शादी में आए अकड़ू फूफा की तरह होता था आज उनकी हालत बिन बुलाए बाराती जैसी हो गई है। समझ नहीं आता जब देश में गरीब और गरीबी बराबर अनुपात में है, मध्यमवर्ग का रुतबा हर योजना के मध्य में बराबर बना हुआ है तो ऐसी अवस्था में ना जाने सरकारी स्कूल का हाथ कौन छोड़ रहा है! कहीं ऐसा तो नहीं की सभी को शिक्षा का अधिकार अधिकारपूर्वक मिल गया और अब अनाधिकार कोई नौनिहाल बचा ही नहीं? बचे है केवल कुछ घोष वाक्य जिसे बसो और दीवारों पर लिखकर उन्हे पढ़ने वाले ढूँढे जा सके और स्कूल बाअदब बंद होते रहे।
यह भी हो सकता है कि शिक्षित होकर लोग बेरोजगार रहना नहीं चाहते इसलिए रोजगार मांगने लगते है या ‘बेरोजगारो का उपक्रम’ के नाम से छोटी मोटी रेहड़ी लगा लगाकर घूमने लगते है। शिक्षा के इस दुरुपयोग का केंद्र ये सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले गैरजिम्मेदार जरूरतमन्द ही तो होते है। भला बेकार और बेगार का अंतर इनसे अच्छा किसे पता है? फिर क्यों चलाया जाए ऐसे शिक्षा केन्द्रो को जिसमे शिक्षा अशिक्षित होकर रह जाए। जहां पढ़कर विद्यार्थी कुल जमा चार वाक्य बोलना सीखे और खड़े होते ही चार सवाल करें? सवालों का केंद्र होते है ये सरकारी स्कूल वाले क्योंकि ये शिक्षा और सुविधा के बीच का अंतर पहचानते है। ये मेहनत और महानता के भाषाई फर्क को भी बिना पूछे देख लेते है। हो सकता है कि यहाँ के विद्यार्थी भी भस्मासुर कि तरह बनाने वाले को ही मिटाने चल दे। बंद कीजिए।
कारण अनगिनत हो सकते है नहीं तो क्या कारण होगा की ऐसी जरूरी चीज को गैर जरूरी समझा जाए! इन स्कूलों में विद्यार्थियों को लुभाने की कोशिश में कसर कम भी तो नहीं रखी गई। कभी खिचड़ी,कभी पुस्तकें,कभी पोशाख सब कुछ देने पर भोजन अवकाश में भरपूर विद्यार्थी पाए गए और बाकी समय नदारद। मनुष्य की जरूरत में आता भी तो रोटी,कपड़ा और मकान है। शिक्षा तो प्राथमिक आवश्यकता है भी नहीं। अब जहां शिक्षा ही नहीं रही वहाँ शिक्षक रहकर भी क्या कर सकते हैं। शिक्षक और आलू में एक समानता होती है। सर्वसमावेशी होने की समानता। आप चाहे उपवास का खाना बानाइए चाहे पंगत का आलू तो आना ही है। सरकारी स्कूल के शिक्षक मतलब आलू। हरफनमौला। ये बहुत कुछ कर लेते हैं।
शिक्षक है वे, आप चाहो तो उन्हें चुनाव अभियान का सरकारी ब्रांड एम्बेसेडर समझ लीजिए। उन्हें आता देखकर ही गली मुहल्ला भांप लेता है कि चुनाव आने को है। ये भारत के ऐसे रत्न है जिन्हें भारत रत्न नहीं मिल सकता। इनकी जानकारी भी तो देखिए कि किस शहर के किस मोहल्ले की किस गली में कितने नंबर के मकान में कितने सदस्य है यह जानकारी घर के मुखिया के अलावा और किसी को हो तो वह है उस क्षेत्र का बी एल ओ। सरकारी स्कूल का शिक्षक शिक्षा में कितना उपयोग होता है यह तो अब नहीं पता लेकिन वह अभियान और योजनाओं में भरपूर प्रयोग किया जाता है यह पक्का पता है।
समस्या यह है कि निजी स्कूल के मकडजाल ने सरकारी स्कूल को वैसे ही ग्रस लिया जैसे छद्म ने मूल को ग्रसा है। नेता ने नागरिक को ग्रस लिया है और नए ने पुरातन को। सवाल यह है कि उस राशि का क्या होगा जो शिक्षा उत्थान के लिए निर्धारित की गई है। मैंने अपने शहर में ऐसे कई निजी स्कूल देखे जिनकी दूरी वहाँ के विद्यार्थियों के निवास से बहुत दूर होती है। जब वे स्कूल बस में बैठकर जाते है तो पालक ऐसे छोड़ने जाते है जैसे बच्चा अस्तित्व की जंग पर निकला हो। लौटता भी वह कुछ कुछ ऐसा ही है जैसे शत्रुओं को खदेड़ने में कोई कसर छोड़ी न हो। शत्रु वह अपनी समझ से निर्धारित करता है या नहीं भी करता हो। पालक है कि इसी में प्रसन्न होते है कि बच्चा बहुत दूर पढ़ने जा रहा है। इस दूरी को वे बच्चे की पढ़ने की लगन से जोड़ देते है। इसके बिलकुल विपरीत होते है सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले,क्या कहे इन्हें! ये भी जाते दूरदराज ही है।
कभी नदी पार करके तो कभी पहाड़। भला इतने बीहड़ जगहों पर जो स्कूल बनती होगी वो बिना यातायात के साधन मुहइया कराए चलती भी तो कहाँ तक जाती! वह तो भला हो हमारी पत्रकारिता की जय वाली मानसिकता का जो स्कूल है की बजाय स्कूल दूर है को ज्यादा अहमियत मिलती है। सरकार परेशान कि स्कूल रखे या ना रखे। ना रखने पर एक ही समस्या की नहीं है। रखने पर हजार सवाल। ‘ऐसा क्यों और वैसा क्यों नहीं’ जैसे सवाल तो रहते ही है तैयार की कहीं ढ़ोल बजे और ये मंगल गाए।‘ अब जिस दायरे में सवाल ही समस्या हो वहाँ तो अनेक की बजाय एक को ही चुना जाएगा। लो हो गया मसला हल।
यूं भी यह आधुनिक काल है। यहाँ सामूहिक से ज्यादा महत्व व्यक्तिगत को दिया जाना अधिक उपयोगी है। सरकारी की भेड़ चाल में चलने से अधिक अच्छा है कि कहीं और चला जाए और इसी चाल के चलन पर यह तो पता चल ही गया की गैरसरकारी होना भी सुखकारी होता है।
- आभा सिंह
नागपुर, महाराष्ट्र