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बड़ों की डांट


रोज की दिनचर्या की मुताबिक़ दादाजी बेसब्री से अखबार वाले का इंतजार कर रहे थे। उन्हें सुबह सुबह जैसे अखबार की लत लगी हुई थी। दादीमां उनकी इस आदत से परेशान भी थी, रोज की तरह बस तब तक चिड चिड करना और अखबार वाले को देर से आने पर दादाजी का फटकारना जैसे आदत ही बन गई थी। पर अखबार वाला भी कहां सुनने को तैयार था, वो रोज ही देर से आता दादाजी की डांट सुनता और दादाजी को प्रणाम कर मुस्कुरा के चला जाता। 

पर मैं रोज ये देख हैरान होता थी कि अखबार वाला डांट सुन के भी रोज मुस्कुराता और दादाजी के पाव छू कर चला जाता। एक दिन उत्सुकता वश मैंने अखबार वाले से कारण पूछ ही लिया। अखबार वाला बोला जब से आपके घर अखबार देना शुरू किया है उस दिन से मेरे बच्चे की जैसे सफलता की सीढ़ी खुल गई। दादाजी की डांट मेरे लिये और मेरे परिवार के लिये जैसे आर्शीवाद बनके रोज मेरे घर मे खुशियां लाती है। 

बस यही कारण है की मैं मुस्कुरा के पांव छू कर प्रणाम कर चला जाता हूं। मुझे दादाजी की डांट का बुरा नहीं लगता बल्कि ऐसा लगता है कि आशिर्वाद दे रहे हैं और फ़ूल बरसा रहे हैैं, यह सुन मैं भाउक हो गया और एक अमूल्य गुण उठाया और पेपर वाले को सैल्यूट किया।


- एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी, गोंदिया (महाराष्ट्र)
कथा 8682640892063492773
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