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हिंदी साहित्य में रीतिकालीन साहित्य की स्वतंत्र पहचान : प्रो. डॉ. अशोक मर्डे


नागपुर/पुणे। हिंदी साहित्य के इतिहास के अंतर्गत  रीतिकालीन साहित्य में अनेक लक्षण ग्रंथों का सृजन हुआ है। परिणामत: काव्यशास्त्रीय विवेचन में रीतिकालीन साहित्य सबसे आगे रहते हुए उसकी अपनी स्वतंत्र पहचान है। 

इस आशय का प्रतिपादन डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाडा विश्वविद्यालय, औरंगाबाद, महाराष्ट्र के हिंदी अध्ययन मंडल के नवनिर्वाचित सदस्य प्रो. डॉ. अशोक वसंतराव मर्डे, अध्यक्ष, हिंदी विभाग, यशवंतराव चव्हाण महाविद्यालय, तुलजापुर, जिला उस्मानाबाद, महाराष्ट्र ने किया। 

विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के तत्वावधान में ‘रीतिकाल में कृष्ण भक्ति काव्य’ विषय पर आयोजित 139 वीं (24 वीं) आभासी गोष्ठी (30 दिसंबर,2022) में वे मुख्य अतिथि के रूप में अपना उद्बोधन दे रहे थे। विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मुहम्मद शेख, पुणे, महाराष्ट्र ने गोष्ठी की अध्यक्षता की। 

प्रो. डॉ. अशोक मर्डे ने आगे कहा कि रीतिकालीन हिंदी साहित्य ने केशवदास, चिंतामणि, बिहारी, देव, मतिराम, घनानंद, बोधा, आलम, भूषण जैसे श्रेष्ठ कवि दिए हैं। रीतिकालीन हिंदी साहित्य ब्रजभाषा तथा कुछ हद तक अवधी में लिखा गया है। इस काल में लिखा श्रृंगार वर्णन श्रेष्ठ माना जाता है। 

इसी कारण इस काल को श्रृंगार काल भी कहा गया है। गोष्ठी की मुख्य वक्ता डॉ. नजमा बानू मलेक, नवसारी, गुजरात ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि हिंदी साहित्य के मध्य काल के उत्तरार्ध को रीतिकाल कहा जाता है। 

रीतिकाल के प्रसिद्ध कवि बिहारी हिंदी साहित्य के अनुपम रत्न है, जिन्होंने एकमात्र बिहारी सतसई लिखकर इतनी प्रसिद्धि पाई कि, उनकी रचना पर कई आलोचनात्मक ग्रंथ लिखे गए। उन्होंने दो पंक्ति के छोटे से छंद में मानो गागर में सागर भर दिया है। 

बिहारी को कई विषयों का ज्ञान था, जैसे - ज्योतिष शास्त्र, काव्यशास्त्र, गणित, नायक-नायिका भेद, ग्रह-नक्षत्रों का ज्ञान, रंग, विज्ञान, नीति, भक्ति, प्रकृति, लोक, समाजशास्त्र और साहित्य के बारे में उन्होंने जो कुछ लिखा वह उनकी बहुज्ञ का परिचायक है। 

श्रीमती श्वेता मिश्रा, पुणे, महाराष्ट्र ने वक्ता के रूप में अपने मंतव्य में कहा कि बिहारी रीतिकाल के रीति सिद्ध काव्य धारा के प्रतिनिधि कवि हैं। बिहारी की भाषा में भाव को मूर्त करने की अपरिमित शक्ति है। उनकी रचना में कहीं कोई कच्चापन नहीं झलकता। बिहारी कम शब्दों में अधिक बातें कहने में पारंगत है। 

आभासी गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए संस्थान के अध्यक्ष डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मुहम्मद शेख, पुणे, महाराष्ट्र ने अपने उद्बोधन में कहा कि रीतिकाल के अंतर्गत प्रमुख कवियों में मुख्य रूप से दो भेद किए गए हैं, रीतिबद्ध और रीतिमुक्त। एक और प्रकार रीतिसिद्ध कवियों का है और उन्हें भी रीतिबद्ध कवियों के अंतर्गत ही रखा जाता है। 

इन कवियों में केशवदास, चिंतामणि, मतिराम, देव और भिखारी दास प्रमुख हैं। रीतिमुक्त कवि वे कहे जाते हैं, जिन्होंने स्वच्छंद प्रेम भाव की रचनाएं लिखी। इनमें घनानंद, बोधा, आलम और ठाकुर के नाम प्रमुख हैं। बिहारी रीतीसिद्ध कहे जा सकते हैं पर उन्होंने रीति परंपरा के अनुसार काव्य रचना की है। 

प्रारंभ में विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के सचिव डॉ. गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी ने गोष्ठी की प्रस्तावना की। गोष्ठी का शुभारंभ श्रीमती रश्मि लहर श्रीवास्तव की सरस्वती वंदना से हुआ। प्रा. रोहिणी डावरे, अकोले, महाराष्ट्र ने स्वागत भाषण दिया। गोष्ठी का संयोजन श्रीमती पुष्पा श्रीवास्तव ‘शैली’, रायबरेली, उत्तर प्रदेश ने किया। 

प्रतिभागियों के रूप में गोष्ठी में प्रा.अनीता सक्सेना, डॉ.अनीता वानखेडे, प्रा.मधु भंभाणी, नागपुर, देवीदास बामणे, डॉ. विनोद कुमार वायचाल, उस्मानाबाद, डॉ. शोभना जैन, व्यारा, गुजरात की गरिमामय उपस्थिति रही। गोष्ठी का सफल व सुनियोजित संचालन डॉ. रश्मि चौबे, बाल संसद प्रभारी तथा गाजियाबाद प्रतिनिधि ने किया। डॉ. पूर्णिमा मालवीय, प्रयागराज ने आभार ज्ञापन किया।
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