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समय का पहिया...


जब कभी इत्मीनान से, साइकिल चलाता हूँ
खेत-खलिहान फ़िज़ाओं से, आंखें सेंकता हूँ
चहचहाहती चिड़ियों के, मधुर धुन में मस्त होकर
घूमते हुये पहिये को, टुकुर-टुकुर देखता हूँ.

मेरी नज़र पहिये के, वाल्व ट्यूब पर पड़ती है
जो हर बार ज़मीन से उठ, मेरी ओर मुड़ती है
फिर मुझसे दूर होती, ज़मीन से जा टकराती है
उठती है गिरती है, सम्हलती है फिर उठती है.

कान में फुसफुसा कर, सर्द हवाएँ कुछ कहती है
बार बार जब यही, सिलसिला दोहराता है
समय का पहिया भी, क्या यूँ ही नहीं घूमता?
उठता है गिरता है, सम्हलता है फिर उठता है.

जब जंगल घने होते हैं, इंसान उन्हें काटकर
अपने जीने-बसने, लायक बनाता है
जंगली जानवर साँप-बिच्छु से, दूर होता हुआ
संरक्षित आबोहवा में, अपना घर बसाता है.

जंगल के कंद-मूल, और शिकार से थक कर
खेत-खलिहानों के ठहराव का, उत्सव मनाता है
खूंख्वार जानवर और नरभक्षियों से सुरक्षित
गाय घोड़े भेड़ बकरी संग, सुकून से जीवन बिताता है.

दूध और शहद की, नदियों में नहा-नहा कर
हस्तशिल्प कला संगीत, उसे खूब सोहाता है
तीज त्योहार रीति रिवाजों के, उत्कर्ष में सनकर
मानव जीवन का उल्लास, आनंद उठाता है.

लेकिन नये आविष्कारों के, चपेट में आकर
आश्रम का स्वातंत्र्य, मेहनत-मजूरी की ग़ुलामी बन जाता है
मानव अपने पार्थिव जीवन की, दहलीज को तोड़कर
इठलाता है इतराता है, खुद ही खुद से ठगाता है.

धरती पर सहज जीने के, नियम-कायदे बने हैं
जहाँ हर पेड़-पौधा जीव-जंतु, अपनी परिधि में जीता है
अपने जीवन को और भी, बेहतर बनाने के लिये
धरती से बलात्कार का, अपराध करता जाता है.

चमक-दमक शोर-शराबे से, जीवन को लैस कर
मानव और भी, तेज रफ्तार से भागता है
उसे अपने ही पसीने से, आने लगती है बदबू
जब वह कारखाने की बनी, कृत्रिम चीजें खाता है.

जब जंगल में बाँस झाड़, लकड़ी बहुतेरे होते
उन्हीं से वह सुंदर मकान, घर के सामान बनाता है
जंगलों के तेजी से, कटते जाने से ही
सीमेंट कंक्रीट काँच के कृत्रिम घुटनभरे भवनों के, भँवजाल में फंसता जाता है.

तन को ढकने के लिए छाल खाल, रेशे हो या रेशम
जंगलों एवं खेत खलिहानों, से ही पाता है
जंगलों के विलुप्त होने, और कृत्रिम सस्ते धागों के आने से
तन को टिकाऊ चमकीले, लेकिन हानिकारक वस्त्रों से सजाता है.

जिस जंगल के भय को, वह पीछे छोड़ आया था
उससे हासिल हर साधन का, कृत्रिम विकल्प बनाता है
अपने ही आप से, होता हुआ दूर
अंततः स्वयं ही, नरभक्षी बन जाता है.

मद मत्सर के, इस काले घने रात का अंत
पौ फटते, एक नए प्रभात से होता है
साईकल के पहिये के, वाल्व ट्यूब की तरह
उठता है गिरता है, सम्हालता है फिर उठता है.

- चंद्र विकाश
स्वदेशी विचारक, नई दिल्ली 

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