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इश्क ही तो है..




तुमने जब हमको निहारा सब जुबानी ही कहा
किसने देखा वहां होगा कहता दीवाना ही रहा
इज्जत जायेगी किसकी और क्यों पूछा वहां
किसके लिए प्यार उभरा न जाने बहता रहा

रिश्ते में जब नाम दे ही दिया आपने हमको
क्या रही तेरी मेरी काया मिलकर एक जां ही कहा
तेज थी स्वांस तेज था तूफानी दरिया उमंगों का
हमने तो पाया किनारा आपने कब अपना कहा

जिसने खुद को मिटा दिया मेरे अक्स में ए खुदा
उसका वजूद मेरे सिवाय है कुछ अब तू ही बता
मिलन के पलों की कहानी भुलाने इतना खामोश
कैसे विदा करूं अधूरी प्यास का वह प्याला बता

हवाओं ने उनकी मंजूरी का पैगाम भेजा है जबसे
जिधर देखूं उधर आग लगी है कुछ बुझती हुई क्या
खुद का एहसास ही जब ले उड़ा एकान्त मेरा
इश्क में तेरे गिरेबान में झांकू और जलूं तो तू जला

- नरेंद्र परिहार ‘एकान्त चिंतन’
   नागपुर, महाराष्ट्र 
काव्य 8134589542790178207
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