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घोड़ों की राजनीति


जब- जब राजनीति के अखाड़े में बयानबाज़ी की रेस लगती है, तब-तब कोई न कोई नेता अपने जुबानी घोड़े को दौड़ा देता है।  राजनीति एक समय बहस, विचारधारा और सेवा का मंच हुआ करती थी। अब यह बदलते युग की रेसकोर्स बन चुकी है, जहाँ हर नेता घोड़े की तरह खुद को सबसे तेज़, सबसे मज़बूत और सबसे योग्य साबित करने की होड़ में है। कार्यकर्ताओं को भी वह घोड़ों की संज्ञा देने लगा है। इस बार बारी थी कांग्रेस के एक नेताजी की, जिन्होंने मध्य प्रदेश में संगठन को विस्तार देने के लिए आयोजित कार्यकर्ता सम्मलेन में अपने पार्टी कार्यकर्ताओं में से घोड़ों की नस्ल को खोजने की बात कहते हुए घोड़ों की एक अद्भुत त्रिवेणी प्रस्तुत की: लगड़ा घोड़ा, रेस का घोड़ा और शादी का घोड़ा।

अब भला बताइए, जब नेता घोड़ा बोले, तो घोड़ा भी सोच में पड़ जाए – कि भाई, मैं कौन-सा वाला हूं?

अपने नेता की बात सुनकर कार्यकर्ता फुसफुसाने लगे और एक दूसरे की ओर देखकर आंखों को भटकाते हुए कयास लगाने लगे कि भाई "मै कौन सा घोड़ा हू, पड़ोसी किस श्रेणी के घोड़े में आता है"। 
कार्यकर्ता खबरीलाल कुछ सोचने लगा "लगड़ा घोड़ा" – राजनीति की असहायता का प्रतीक। इस श्रेणी में वे तमाम नेता आते हैं जिन्हें खुद उनके ही दल वाले पाले-पोसे तो सही, पर जैसे ही मैदान की बात आई, घुटने टेक दिए। वे पार्टी पोस्टर में दिखते तो हैं, पर जमीन पर दिखें तो चश्मा बदलना पड़ जाए। इनका चुनावी भाग्य ऐसा होता है कि गधा भी इन्हें देख कर दुलत्ती मारने से इनकार कर दे। फिर कार्यकर्ता क्या चीज है!

"लगड़ा घोड़ा" वह होता है जिसे पार्टी के पंडित टिकट तो दे देते हैं, मगर जनता मतदान केंद्र तक पहुँचने से पहले ही उन्हें पीठ दिखा देती है। और जब हार जाएँ, तो कहते हैं – *"ईवीएम में गड़बड़ी थी।"*

खबरीलाल ने फिर सोचा दूसरा घोड़ा: "रेस का घोड़ा" – चुनावी मैदान का धावक।  रेस का घोड़ा, राजनीति का वह चमकता सितारा होता है जो जनसभाओं में दहाड़ता है, सोशल मीडिया पर ट्रेंड करता है और एंकरों के डिबेट शो में बार-बार क्लिप किया जाता है। यह घोड़ा जब चुनाव लड़ता है, तो घोड़े के साथ-साथ उसका पूरा अस्तबल भी प्रचार में लग जाता है। कभी-कभी तो ऐसा घोड़ा विपक्ष के अस्तबल से निकलकर सत्ताधारी अस्तबल में भी कूद जाता है – "जनसेवा के नाम पर", बिल्कुल।  रेस का घोड़ा जीतने के बाद पांच साल तक दिखे या न दिखे, लेकिन उद्घाटन फीता काटने जरूर पहुँचता है – वो भी 15 कैमरों के साथ।

अब बारी थी तीसरे घोड़े की, यानी  "शादी का घोड़ा" – दिखावटी लेकिन जरूरी। यानी राजनीति के सबसे ज़रूरी लेकिन प्रतीकात्मक चेहरे पर यह सटीक बैठता है। चुनाव के समय ऐसा घोड़ा सबसे आगे होता है – रैली में झूमता है, माला पहनता है, ढोल पर नाचता है, पर असल में दिशा तय करता है बारात का डीजे।

यह घोड़ा प्रतीक है – परंपरा का, उम्मीदों का, और "कुछ तो करना ही है" वाली भावना का। लेकिन जैसे ही शादी (चुनाव) हो जाती है, घोड़ा एक कोने में बंध जाता है – कोई पूछता भी नहीं।

तो अब सवाल ये है कि राजनीति में असली घोड़ा कौन? नेताजी के बयान के पीछे चाहे जो भी रणनीति रही हो, मगर जनता सोच में पड़ गई है – क्या हम लगड़े घोड़े पर दांव लगा रहे हैं? या रेस के घोड़े को वोट दे रहे हैं जो जीतते ही रेस छोड़ देगा? या हम उस शादी वाले घोड़े को देख रहे हैं, जो बस शोभा यात्रा के लिए आया है?

राजनीति के इस घुड़दौड़ में मतदाता ही असली सवार है। अब यह मतदाता पर है कि वह किस घोड़े को चाबुक मारना चाहता है – लगड़ा, रेस वाला या शादी का।

“चुनाव का मैदान है, हर ओर घोड़ों की कतार,
कहीं लगड़ा तो कहीं रेस का, कहीं है शादी का शृंगार।l

- डॉ. प्रवीण डबली 
   स्वतंत्र व्यवसाय पत्रकार
   9422125656
व्यंग्य 8628376789793483498
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