कमज़ोर होती पीढ़ी : डिजिटल युग में पालन- पोषण और अनुशासन पर पुनर्विचार
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हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं जहाँ सब कुछ तुरंत चाहिए, ध्यान भटकाने वाले डिजिटल माध्यम हर जगह हैं, और नैतिक मूल्य लगातार बदल रहे हैं। आज के बच्चे उस दुनिया में पले-बढ़े हैं जो उनके माता-पिता की दुनिया से बिलकुल अलग है। लेकिन अफसोस, हमारे पालन-पोषण के तरीके गलत दिशा में हैं। सवाल यह है - क्या हम वास्तव में अपने बच्चों की सही परवरिश कर रहे हैं? और यदि नहीं, तो आज की अति-संवेदनशील और हाइपर-कनेक्टेड दुनिया में सही पालन- पोषण और अनुशासन का स्वरूप कैसा होना चाहिए?
नई चुनौतियाँ: सीमा रेखा कहाँ खींचें?
कभी एक शिक्षक की डाँट या माता-पिता की फटकार ही बच्चे को सही रास्ते पर लाने के लिए काफी होती थी। आज स्थिति पलट गई है - शिक्षक यदि ऊँची आवाज़ में बोलें या बच्चे को हाथ से मार्गदर्शन भी करें तो उन्हें अनुशासनहीनता या शारीरिक दंड के आरोप का सामना करना पड़ता है। दूसरी ओर, माता-पिता हर समय बच्चों को नाराज़ न करने की कोशिश में जुटे रहते हैं, और प्यार की जगह ढीलापन दिखाते हैं।
यह अति- संरक्षण, जिसे हम 'आधुनिक पालन- पोषण' मान बैठे हैं, असल में बच्चों को मानसिक रूप से कमज़ोर बना रहा है। हम उन्हें असफलता, असुविधा और परिणामों से बचा रहे हैं - जबकि इन्हीं अनुभवों से आत्मबल, परिपक्वता और सहनशीलता विकसित होती है। हमने एक ऐसी पीढ़ी तैयार की है जो संकटों के सामने बिखर जाती है और सीमाओं के बीच भ्रमित हो जाती है।
सोशल मीडिया का जाल और डिजिटल भ्रांति
आज के युवाओं पर सबसे बड़ा खतरा बिना नियंत्रण के डिजिटल दुनिया है। सोशल मीडिया ने मानो माता-पिता की जगह ले ली है। बच्चे दिन भर दूसरों की झूठी चमकती ज़िंदगी देखते रहते हैं, लाइक्स से आत्ममूल्य आँकते हैं, और फॉलोअर्स की संख्या से अपनी पहचान बनाते हैं। यह आभासी दुनिया उनके व्यक्तित्व को न सिर्फ़ बदल रही है, बल्कि उन्हें वास्तविकता से काट रही है।
और जब शिक्षक या माता-पिता उन्हें सुधारने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें विद्रोह, चिढ़चिढ़ापन या भावनात्मक टूटन का सामना करना पड़ता है। क्योंकि अब अनुशासन को चरित्र निर्माण का उपकरण नहीं, बल्कि मानसिक आघात समझा जाता है।
21वीं सदी में पालन-पोषण का नया अर्थ
आज के समय में पालन-पोषण को बनाना होगा संवेदनशीलता और अनुशासन, प्यार और सीमाओं, आज़ादी और ज़िम्मेदारी के संतुलन का नाम। यह सिर्फ़ दोस्त बनने या नियंत्रण करने की बात नहीं है - यह मार्गदर्शन की भूमिका है।
पालन- पोषण को नया स्वरूप कुछ इस तरह होना चाहिए:
1. मौजूद रहें, सिर्फ़ उपस्थित नहीं: शारीरिक रूप से साथ रहना ही काफ़ी नहीं है - संवाद करें, सुनें, समझें।
2. स्वयं आदर्श बनें: बच्चे वही करते हैं जो वे देखते हैं। अगर आप मोबाइल से चिपके रहेंगे, तो वे कैसे दूर रहेंगे?
3. प्यार का मतलब ढीलापन नहीं: 'ना' कहना आपको कठोर नहीं, ज़िम्मेदार बनाता है।
4. ज़िम्मेदारी की शिक्षा समय पर दें: उन्हें अपने कार्यों के परिणाम भुगतने दें। असफलता भी एक महान शिक्षक होती है।
शिक्षकों की भूमिका : सीमित अधिकारों में बंधे?
आज के माहौल में शिक्षकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अनुशासन के बिना कक्षा संभालें। वे ऊँची आवाज़ में नहीं बोल सकते, दंड नहीं दे सकते, और बच्चे को छू भी नहीं सकते। हालाँकि यह बच्चों को शोषण से बचाने के लिए है (जो आवश्यक है), पर इससे उन शिक्षकों के हाथ बँध जाते हैं जो सिर्फ़ पढ़ाना नहीं, बल्कि चरित्र गढ़ना चाहते हैं।
हमें माता-पिता और शिक्षकों के बीच विश्वास की पुनर्स्थापना करनी होगी। शिक्षकों को ऐसा प्रशिक्षण और दिशा-निर्देश मिलना चाहिए जिससे वे विद्यार्थियों को गरिमा और दृढ़ता से सुधार सकें। स्कूलों को अनुशासन को दंड नहीं, मूल्य के रूप में बढ़ावा देना होगा।
अत्यधिक संरक्षण का विरोधाभास
आज के कई माता- पिता अपने बच्चों को मानो काँच की मूर्तियाँ समझते हैं - हर बार बचाते हैं, हर गलती को सही ठहराते हैं, हर गिरावट पर गद्दी बिछा देते हैं। इसका नतीजा यह है कि हम एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर रहे हैं जो तनाव, असफलता, आलोचना या दबाव का सामना नहीं कर पा रही।
हमें समझना होगा: बच्चों को तकलीफ़ से बचाना प्यार नहीं - बल्कि नुकसान है।
उन्हें गिरने दें, हारने दें, दर्द महसूस करने दें - तभी वे मजबूत बनेंगे।
पालन- पोषण और शिक्षा को फिर से दिशा देनी होगी सिर्फ़ बच्चों को नहीं, बल्कि हमें - बड़ों को बदलने की ज़रूरत है। पालन-पोषण का मतलब बच्चों को खुश करना नहीं, उन्हें ज़िंदगी के लिए तैयार करना है। शिक्षण का उद्देश्य नंबर दिलवाना नहीं, अच्छे नागरिक बनाना होना चाहिए।
आइए अनुशासन की गरिमा, सुधार की हिम्मत और मार्गदर्शन की कला को फिर से अपनाएँ। आइए ऐसी संतानें न बनाएं जो इंस्टाग्राम पर परफेक्ट दिखें पर असल ज़िंदगी में टूटी हुई हों। आज हम जैसा मार्गदर्शन देंगे, वैसा ही कल का समाज बनेगा।
'बच्चों को दबाव से डरने के लिए मत पालिए, उन्हें इतना मजबूत बनाइए कि वे हर दबाव का सामना कर सकें।'
नागपुर, महाराष्ट्र