...... इसे न्याय कहते हैं
'तुम पर पांच सौ रुपये का जुर्माना लगाया जाता है'।माननीय न्यायाधीश ने कहा।
'साहेब, मैं दोषी नहीं हूँ', रामदीन ने जवाब दिया।
'हजार रुपये', न्यायाधीश ने कहा।
'साहेब, कृपा करो, मैं गरीब आदमी हूँ'।
'हजार पांच सौ या पंद्रह दिन का कारावास', माननीय न्यायाधीश ने फाइल बंद कर दी और दूसरे मामले की सुनवाई शुरू की।
रामदीन कोई जुर्माना नहीं भर सकता था, इसलिए उसे दो सप्ताह की जेल हुई।
मैं रामदीन को पिछले चार साल से जानता हूं। वह किडनी की बीमारी से पीड़ित अपने बच्चे के स्वास्थ्य परीक्षण के लिए मुझसे मिलने आता था। इस बार वह एक असामान्य लंबे अरसे के बाद आया।
'क्या हुआ रामदीन, इतने दिनों के बाद दिखे'? मैंने पूछा।
'साहेब, यह सब माथे पे लिक्खा सितारों का खेल है', उसने जवाब दिया।
बाद में उसने उन घटनाओं का जिक्र किया जो उसे 'सलाखों के पीछे' ले गईं।
रामदीन शहर के सबसे व्यस्त ट्रैफिक चौराहों में से एक व्हैरायटी चौक पर ठेला लगा कर कपड़े की थैलीयां बेचता था। यही उसकी आय का एकमात्र जरिया था।
उसे एक बेटी थी। दो साल की कम उम्र में ही उसके बेटी की आंखों में सुजन आ गई, आंखें लाल हो गईं और धीरे- धीरे उसके दोनों आंखों की रोशनी चली गई। रामदीन उसे सरकारी अस्पताल ले गया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। उसका दूसरा बच्चा स्वस्थ था, लेकिन उसे गुर्दे की बीमारी हो गई, जिसके लिए वह अक्सर मुझसे मिलने आता था। मैं उसके बच्चों की त्रासदी से हिल गया। मैंने अपने नेत्र रोग विशेषज्ञ सहयोगियों की राय ली। उसकी बेटी का अंधापन विटामिन 'ए' की कमी के कारण हुआ था। जो समय रहते इलाज करने पर ठीक हो सकता था। लेकिन जब तक बच्ची को मेरे डॉक्टर सहयोगीयों ने देखा, तब तक उसका अंधापन अपरिवर्तनीय हो चुका था। अब उसके आंखों के प्रत्यारोपण के अलावा उसके अंधेपन का कोई और चारा नहीं था, जो रामदीन के लिए आसमान से तारे तोड़ने वाली बात थी। जब भी उसके पिता और भाई मुझसे मिलने आते, तो वह अंधी लड़की अपने भाई का हाथ थामे आती थी। मेरा दिल उस बच्ची के लिए तड़प उठता।
ट्रैफिक चौराहे पर दुकान लगाने के लिए पुलिस कांस्टेबल रामदीन को बार- बार परेशान करते थे। हर दिन पुलिस कांस्टेबल उससे रिश्वत लेते और फिर उसे उसका ठेला लगाने देते। लेकिन एक शाम, वह ड्यूटी पर कांस्टेबल को रिश्वत नहीं दे सका और इसके चलते उसे गिरफ्तार कर लिया गया, अदालत में पेश किया गया और जुर्माना लगाया गया। उससे पांच सौ रुपये जुर्माना भरने कहा गया। जब रामदीन ने जज को समझाने की कोशिश की तो उसकी सजा दोगुनी और फिर तीन गुनी कर दी गई। जुर्माना नहीं भरने के कारण उसे सलाखों के पीछे डाल दिया गया।
'मैंने कपड़े के थैले बेचना बंद कर दिया है साहब', रामदीन ने कहा।
'मैं अभी एक दुकान में नौकर का काम कर रहा हूँ', उसने कहा।
'लेकिन तुमने बैग बेचने का अपना धंदा क्यों छोड़ दिया'? मैंने पूछा।
'साहेब, मेरे जीवन में, मैं कभी इतना अपमानित नहीं हुआ। मैंने पहले कभी जेल नहीं देखा था। मैं हमेशा सोचता था कि जेल ठगों के लिए है। शुरुआती दो दिनों तक मेरी पत्नी को भी मेरे ठिकाने का पता नहीं चला। वह यह जानकर चौंक गई कि मुझे जेल में डाल दिया गया है। मेरे पड़ोसी मुझे और मेरे परिवार को नीचा देखते हैं। यहां तक कि पड़ोस के बच्चों ने भी मेरे बच्चों के साथ खेलना बंद कर दिया है'। उसकी आंखें नम हो गईं।
'मैं फिर कभी बैग नहीं बेचूंगा साहेब, इसने मेरा गौरव लूट लिया है। मेरी इतनी जिल्लत कभी नहीं हुई साहेब'।
मैं समझ सकता था कि रामदीन का खुद पर से भरोसा उठ गया है। जज के फैसले ने उसकी जिंदगी बदल दी। यहाँ वह आदमी अपमानित और बिखरा हुआ खड़ा था, दो बीमार बच्चों का पिता, उनमें से एक हमेशा के लिए अंधी थी। मैंने अपने आँसू छुपाने के लिए दूर की खिड़की की ओर आंखें फेर ली।
कुछ दिनों के बाद मैं उसी ट्रैफिक चौराहे से गुज़रा जहाँ रामदीन अपना ठेला लगाता था। कपड़े के थैले बेचने वाले कुछ बैग- विक्रेता अभी भी थे। एक पुलिस कांस्टेबल उनके साथ कुछ तंबाकू साझा कर रहा था, लेकिन रामदीन दिखाई नहीं दिया। फिर मैंने उसे वहां कभी नहीं देखा।
- डॉ. शिवनारायण आचार्य
नागपुर, महाराष्ट्र