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आज की सच्चाई



मरना तो, निश्चित, हर किसी को, एक दिन
जीना कैसा,हर किसी को नही आता।
भले ही चांद पर, पहुंच गये आज हम,
जमीं पर कैसा चलना नहीं आता।

भले ही विदेश से लौट आये हम,
भारतीय, सभ्यता, संस्कृति, से दूर हो चले,
अंग्रेजी, बोलना सीख गये, हम
हिन्दी  बोलना ठीक से नहीं आता।

कर लेते, तीर्थ, पूजा पाठ हम,
पिकनिक, सैर सपाटे, खूब आता,
लुटा देते दौलत जमाने मे आज हम,
माता, पिता की सेवा करना, नहीं आता,

प्रवचन, सुनना, ध्यान जप,करना,
टीवी पर सीरीयल, देखना खूब आता,
ज्ञान की बातें खूब कर लेते, आज हम,
जुबां से कैसे बोलना, हमे नहीं आता।

बहुत, दिखायेंगे,हम जमाने में हमदर्दी, 
कौन अपना पराया,समझ नहीं आता,
वक्त आता, मुसीबत का, कभी,
वक्त पर साथ, निभाना, नहीं आता।

मंदिर, मस्जिद, दर्शन, कर लेते रोज हम,
मानकर ईबादत, खूब कर लेते रोज हम,
जरुरत, से ज्यादा,  खर्च कर लेते हम,
किसी मजबूर का,भला करना नहीं आता।

जमाने को कयूं दोष देता,आज इंसान,
समझ से परे हो गया आज इंसान,
शायद सच्चाई, समझ से दूर हो गई, 
आज ‘किरण’, मै भी विवश हूं हो गया हूंआज,
मेरी समझ मे शायद कुछ नहीं आता।

- जयप्रकाश सूर्यवंशी, ‘किरण’
  साकेत नगर, नागपुर महाराष्ट्र 

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काव्य 3742057009666472409
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