भारतीय संगीत : आध्यात्मिक पक्ष
https://www.zeromilepress.com/2025/07/blog-post_80.html?m=0
हिन्दी शब्दकोष मे दो शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। पहला श्सश् जो विषालता को दर्षाता है जैसे संसार, सागर, समुद्र। दूसरा श्मश् जो महानता को दर्षाता है जैसे माँ, महात्मा, मुनि और मंदिर। इसी तरह संगीत भी अतिविषाल है जिसका आदि अंत बुद्धि से परे है इसे ईष्वरीय रूप भी माना गया है जो संम्पर्ण प्रकृति मे व्याप्त है। जैसे पवन का चलना, झरना कि लयबद्ध ध्वनि, वर्षा का होना, बादलो का होना आदि।
संगीत से मानव जीवन का अटूट सम्बंध है जो जीवन पर्यंत बना रहता है। माँ जब अपने बालक को मधुर लोरी गाकर सुनाती है तो बालक तुरंत सो जाता है। मानव ही नही पषु-पंक्षी पेड़ पौधे इस संगीत से प्रभावित होते है। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान षिव के डमरु और नृत्य से संगीत की उत्पत्ति जिसे शब्द ब्रह्म नाद भी कहा गया है। आगे कुछ इस प्रकार स्वरो का वर्णन आता है जिसमे सुरो के माध्यम से ईष्वरीय सत्ता तक पहुॅचने की साधना है:-
षडूज - सा - साकार रूप
ऋषभ - रे - ऋषियों ने समझा
गंधार - ग - गंधर्वो ने गायन किया
मध्यम - म - राजाओं ने श्रवण किया
पंचम - प - प्रजा में प्रसार-विस्तार हुआ
धैवत - ध - जिसने उसे धारण किया (साधना में प्रवेष)
निषाद - नि - निराकार - शून्य (सर्वत्र व्याप्त)
इस तरह से श्साश् से श्निश् तक स्वरों की यात्रा - आत्मा और परमात्मा से मिलन कराती है।
संगीत - गायन - वादन - नृत्य - तीनो मिलकर की संगीत की पूर्णता होती है। अनेक वर्षो तक संगीत गुरू षिष्य परम्परा श्रुति स्मृति के आधार पर चलता रहा उसके बाद लेखन व्यवस्था मे आया। हमारे ऋषि मुनि संगीत में विद्वानो ने लिलिवद्ध किया। अनेको राग तालो की खोज की उसे मूर्त रूप दिया अनेक वाक्यो का निर्माण किया। इन्ही मान्यताओ के आधार पर ४८४ राग रागिनी तथा ७२ ठाट का वर्णन आया। प्रचलित १० ठाट को विषेष स्थान मिला।
ठाट:-
1. विलावल ठाट
2. कल्याण ठाट
3. खमाल ठाट
4. काफी ठाट
5. भैरव ठाट
6. मरवा ठाट
7. आसावरी ठाट
8. पूर्वी ठाट
9. भैरवी ठाट
10. तोडी ठाट
इन्ही ठाट को काल चक्र के बांधा गया है। दिन और रात्रि के प्रहर के अनुसार गायन वादन की परम्परा चली। राजा महाराजाओ के समय में भारतीय शास्त्री संगीत को घरानो के अनुसार भी जानने में आया जैसे ग्वालियर घराना, आगरा घराना, बनारस घराना, दिल्ली घराना, जयपुर घराना, मेवाडी घराना, रामपुर घराना आदि रूप में प्रसिद्धी मिली।
भारतीय शास्त्रीय संगीत अत्यन्त सूक्ष्म जो दर्षन और योग पर आधारित है। यह केवल पठनीय विषय ही नही यह प्रयोगात्मक-ललित और अमूर्त कला है। ईष्वरीय सत्ता से मिलन तथा मोक्ष प्राप्ति की साधना भी है। इतिहास में लगभग १५वी एवं १६वी सदी में संगीत सम्राट स्वामी हरिदासजी का वर्णन आया है। जिन्होने भगवान कृष्ण से मिलन और मोक्ष प्राप्ति की।
वर्तमान पक्ष : वर्तमान समय में संगीत अनेको रूपो में बँट गया जिसका वर्णन करना मुष्किल है। उप शास्त्रीय संगीत सुगम संगीत, फिल्म संगीत, रविन्द्र संगीत, भक्ति संगीत आदि। दक्षिण भारत उत्तर भारत में अनेको शैलियां प्रचलित हुई। इन सभी से मानव समाज प्रभावित हुई और सभी विधाओ का विस्तार हुआ।
संगीत का व्यवसायिक पक्ष : संगीत का व्यवसायिक पक्ष तो हर काल खण्ड में रहा परन्तु उसका रूप और व्यवहारिक चलन अलग-अलग रहा - भक्ति काल में संगीतमय हरीकथा भजन कीर्तन आदि किया करते थे, दान दक्षिणा पारितोष रूप में जो द्रव्य मिलता था उससे अपनी जीविका चलाते थे।
राजा महाराजाओ के काल मंे भी गायक वादक कलाकार- नृत्यांगनाये अपनी कला का प्रदर्षन करते थे उन्हे उपाधियां मिलती थी सम्मान मिलता था कला को प्रधानता दी जाती थी अर्थ की प्रधानता कम थी फिर भी राजा महाराजा प्रसन्न होकर पुरुस्कार स्वरूप जो मुद्राएॅ देते थे उनसे जीवनयापन के लिए पर्याप्त होता था।
स्वतंत्रता के बाद भारतीय संगीत कि स्थिती और अधिक मजबूत हुई, संगीत षिक्षा का प्रचार-प्रसार सर्वत्र हुआ। गुरु-षिष्य परम्परा भी चलती रही।
स्कूल-काॅलेज में भी संगीत कि षिक्षा का व्यापक रूप से गुरुजनो द्वारा दी जाने लगी। अनेक वाद्य यंत्रो का आविष्कार हुआ गायन वादन के कलाकरो कि संख्या भी बड़ी। फिल्म व्यवसाय में संगीत कि स्थिती मजबूत हुई। आकाषवाणी दुरदर्षन सामाजिक मंचो के माध्यम से कलाकारो को अवसर मिला और व्यवसायिक भी साबित हुआ। संगीत से जुडे अनेक वाद्यो का चलन निर्माण आदि भी हुआ अनेक शहरों में बडे़- बडे़ कारखाने तथा दुकाने आदि ने भी व्यवसायिक रुप ले लिया। इस तरह संगीत का व्यवसायिक पक्ष भी मजबूत हो गया। अनेको कलाकारो का जीवन-यापन भी संगीत में माध्यम से होने लगा।
चिकित्सा के रूप में भारतीय संगीत : संगीत की साधना करने वाले साधक गायन वादन के द्वारा ओंकार ध्वनि अर्थात नाद ब्रह्म कि साधना जिसके कारण साधक में आंतरिक बल, इंद्रियो पर संयम, रोगो से लड़ने की क्षमता का विकास होता है। संगीत मानव जीवन की अंभिन्न तथा मजबूत कडी है जो जीवन को सरल, सुंदर तथा सुगमता पूर्वक जीने की कला सिखाती है। शास्त्रो में अनेको रागो में अनेक गुणो से युक्त जिनके गायन वादन से अनेको रोगो से मुक्ति मिलती है। सितार वादन रागो को सुनने से मनोरोग और अनिन्द्रा से मुक्ति मिलती है। सारंगी वादन सुनने से पागलपन, चिड़चिड़ापन दूर होता है। कंठ से गाये जाने वाले रोगो से हृदय रोग नही होता।
1. राग भोपाली - तनाव से मुक्ति
2. राग जसजयवन्ती जौनपुर - मधुमेह
3. राग भैरवी - सोहनी-अनिंद्रा
4. राग तिलंग - विलावल मुलतानी - क्षयरोग
5. राग बहार बागेश्वरी बिहाग - सिरदर्द
6. राग पूर्वी तोड़ी - रक्तभार
7. राग दरबारी सारंग - हृदय रोग
8. राग खमाज - पित्त रोग
9. राग षिवरंजिनी - याददासत् राग पीलू - रक्त की कमी राग देस - अपच
10. राग सारंग तोड़ी - सिरदर्द क्रोध
11. राग वृन्दावन सारंग - अवसाद
12. राग विहाग मधुवंती - तनाव
संगीत की चिकित्सा क्षमता भी उन्ही दिव्य शक्तियो में से है। अतः हम कह सकते है कि एक अजन्मे अवैध बालक से लेकर पर पड़ने वाले संगीत के प्रभाव के कारण चिकित्सा के रूप में संगीत फलदायी रहा।
भारतीय शास्त्रीय संगीत से बीमारियों को दूर करने का जिक्र वेदो और ग्रंथो में भी है साम वेद में रोगो के निवारण के लिए साम गायन नारद कृत संगीत मकरंद, सारंग देव कृत, संगीत रचनाकर, मृतंग कृत, बृहद्वेषी कोच मुनि के ग्रंथ कर्मक प्रभा, चरक संहिता में ऋषि के ग्रन्थ शब्द कौतूहल अग्निपुराण सहित अन्य पुराणो में वर्णन आया है। संगीत के माध्यम से जो ध्वनि तरंग उत्पन्न होती है वे स्नायु तंत्र की सक्रियता को बढ़ाती है और विकृत चिंतन को राकती है। अन तरंगो से कई ग्रंथीया सक्रिय हो जाती है और उनसे निकलने वाले हार्मोन्स, मानसिक स्थिती में बदलाव लाते है।
भारतीय संगीत में मधुर ध्वनि के माध्यम से एक योग प्रणाली है जो मानव जीवन पर कार्य करती है। मधुर-लय भारतीय संगीत का प्रधान तत्व है। राग दरबारी संगीत भारतीय संगीत की आधारषिला है इसके अर्थनिहित स्वर और लय अपने विषिष्ट प्रभाव से व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को प्रभावित करता है। स्वर तथा लय की भिन्न- भिन्न प्रक्रिया शारिरिक क्रियाओ, रक्त संचार, माषपेषीयो मे स्फूर्ति उत्पन्न कर व्याधियों को दर करती है। नारद द्वारा रचित संगीत मकरंद ग्रंथ में रागो की जातियों के आधार पर रोगी के मन एवं शरीर पर प्रभाव पड़ने का उल्लेख किया गया है। संगीत अध्याय के प्रकरण में विभिन्न रागो के गायन वादन का निर्धारण किया गया है।
आयुधर्म यषो वृद्धि धनं-धान्य फलम लभेत।
रागार्भिवृद्धि संतानम पूर्ण भगा प्रगियति।।
अर्थात आयु धर्म यष वृद्धि धनधान्य संतान की वृद्धि धन धान्य फल लाभ इत्यादि के लिए पूर्ण रागो का गायन करना चाहिए।
ऋगवेद में- लाभपति नामक चिकित्सक का उल्लेख है जिसका तात्पर्य संगीत चिकित्सक से है। सामवेद में रोग निवारण के लिये रागो का गायन वादन का उल्लेख मिलता है। तुम्बरु ऋषि को प्रथम संगीत चिकित्सक माना गया है उन्होने अपने ग्रंथ मे संगीत स्वरामृत उल्लेख किया है कि ऊँची और असमान ध्वनि का वात् पर व गंभीर व स्थिर ध्वनि का पित्त पर तथा कोमल मृदु ध्वनि का कफ् पर प्रभाव पड़ता है संगीत ध्वनियों द्वारा इन तीनो को संतुलित कर दिया जाए तो रोग बीमारी की संभावनाये ही समाप्त हो जायेगी। संगीत मानव जीवन का हिस्सा हमेषा ही रहा है।
मगर संगीत दिवस मनाने का प्रसार १९८१ में फ्रांस के कल्चरल मिनिस्टर- मौरिस फल्यूरेट ने रखा था इसके बाद १९८२ मे पहली बार फ्रांस में तत्कालीन सांस्कृतिक मंत्री जेक लेंग में देष में संगीत दिवस मनाने की घोषणा की थी। फ्रांस में जब संगीत दिवस मनाया गया तो उसे ३२ से ज्यादा देषो का समर्थन मिला और इस तरह से विष्व संगीत दिवस प्रतिवर्ष २१ जून को मनाया जाने लगा। विष्व संगीत दिवस के जरिये - विष्व के सभी संगीत कलाकारों को एक मंच पर ससम्मान आमंत्रित किया जाता, कलाकारों का सम्मान किया जात-प्रस्तुतियां सुनी जाती है।
चारखेड़ा, हरदा (म.प्र.)