नागपुरवासियों ने ‘बडग्या- मारबत’ की परंपरा कायम रखी!
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‘ईडा पिडा घेऊन जाऽऽ गे मारबत’
मन की अशांती, जलन, भय, बिमारीयां
घेऊन जाऽऽ गे मारबत
पोले के दिन पर ‘मारबत’ की परंपरा और ऐतिहासिक शहर नागपुर की विरासत को संरक्षित करते हुए एक जुलूस ! नागपुर की आन-बान और शान है ये जुलूस, जान लेते है क्या है ये त्योहार और इसके पीछे का उद्देश! अतीत में मारबत उत्सव का झुकाव थोड़ा शरारत की ओर था। इसलिए मारबत के जुलूस में जाना बुरा माना जाता था, लेकिन अब स्थिति बदल गई है। भारत का यह अनोखा त्यौहार हमारे गाँव में मनाया जाता है। साथ ही इसके पीछे एक नेक इरादा भी है, इस बात को समझते हुए अब मारबत जुलूस में असभ्यता और अभद्रता काफी कम हो गई है।
कई भक्त अपनी समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए मारबत से मन्नत मांगते है। यह जश्न हर वर्ष बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है और आगे मनाया जायेगा। तो आइए हम भी इस जश्न में शामिल होकर कहे - “सभी अशुभ चीजों को दूर करो, घेऊन जाऽऽ गे मारबतऽऽऽ!” हर साल ‘तान्हा पोले’ के दिन नागपुर में महल-इतवारी यह एरिया चीखों से झुमने लगता है। पूरे भारत में केवल नागपुर में ही मारबत को भव्य-दिव्य रूप में मनाया जाता है। मारबत नागपुरवासियों की ऐसी ग्राम देवी है कि, वह इस गांव पर आनेवाले सभी संकटों को अपने साथ ले जाती है और विलीन कर देती है।
काली मारबत 145 वर्षों से चली आ रही है। इस काली मारबत का संबंध महाभारत काल से भी जोडा जाता है। पूतना मौसी का रुप धारण कर भगवान कृष्ण को मारने की कोशिश की और जब वह कृष्ण के हाथों मर गई तो गांववालों ने उसकी ढिंड मारबत निकालकर गांव के बाहर जला दिया। ऐसा कहते है कि, इसके कारण गांव को फिर कभी किसी समस्या या परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा। इसी संदर्भ में नागपुर में काली-पीली मारबत भी निकाली जाती है। ऐसा माना जाता है कि इस मारबत को शहर के बाहर जलाने से शहर की बुराइयां और परेशानियां खत्म हो जाती हैं।
मूल रूप से मारबत मध्यप्रदेश की कुछ आदिवासी जनजातियों में दिवाली की रात मनाई जाने वाली प्रथा है। एक विशिष्ट आकार की मिट्टी की मूर्ति की ईडा-पीडा, बुराई के प्रतीक के रूप में गांव से बाहर धकेल दिया जाता है। लेकिन फिर यह प्रथा एकदम अलग रूप में नागपुर में कैसे पनपी ? इसके पीछे का इतिहास यह है कि, नागपुर भोसले की रानी महारानी बाकाबाई भोसले ने अंग्रेजों के साथ तथाकथित गठबंधन किया था। इससे नागपुर का सामाजिक मानस उद्वेलित हो उठा। इस घटना का बड़े पैमाने पर विरोध करने के लिए बाकाबाई को स्वार्थी और राष्ट्रविरोधी करार दिया गया और उनके प्रतीक के रूप में “काली मारबत” का जन्म हुआ। साथ ही उनके पति रघुजीराजे भोसले (द्वितिय) ने भी उन्हें नहीं रोका, इसलिए उनका प्रतीक बड़ग्या के रूप में प्रकट हुआ। बाद में यह साबित हुआ कि यह अंग्रेजों को हराने की कर्तबगार बाकाबाई भोसले की रणनीति थी। लेकिन नागपुर के लोग इस प्रथा को नहीं रोक सके। तब मारबत लोगों के मन में एक ऐसे देवता के रूप में स्थापित हो गयी जो अपने साथ बुरे, अशुभ रीति-रिवाजों को लेकर चलती है और अब वर्षों से इस प्रथा का पालन किया जाता है। इसलिए विभिन्न सामाजिक समस्याओं, अवांछनीय रीति-रिवाजों और परंपराओं के प्रतीक के रूप में पीली मारबत निकाली जाती है।
“वामन का उल्लेख अक्सर वैदिक और उसके बाद के समय में किया गया है। नाटे और खुज्या पुरुषो की कहानियों में, नाटा न केवल एक ठिंगना है, बल्कि उसके पास एक असाधारण दैवीय शक्ति भी है। ‘हिमगौरी और सात नाटे’ कहानी तो सभी ने पढ़ी होगी। विष्णु ने बलिराजा को पाताल में दफनाने के लिए वामन का रूप धारण किया और एक अन्य कहानी के अनुसार उन्होंने वामन का रूप धारण करके राक्षस धुंधु को हराया। कश्यप और दनु के पुत्र धुंधु स्वर्ग पाने के लिए अश्वमेध यज्ञ करते हैं और देवता घबराकर मदद के लिए विष्णु के पास भागते हैं। इसलिए विष्णु ने वामन का रूप धारण किया और धुंधु के पास आए और उनके आने पर खुद को देविका नदी में फेंक दिया। जब यज्ञ को छोड़कर सभी लोग उसे बचाने गए तो उसने कहा, ‘मैं कंगाल होकर एक साल से गोते खा रहा हूं’। धुंधु ने उसे वर माँगने को कहा तो वामन ने कहा, “मैं बुटका, क्या माँगूँगा ! मुझे तीन कदम लम्बी भूमि दो”। धुंधु सहमत हो गए, तो वामन ने दो कदमों में पूरी दुनिया नाप ली और तीसरा कदम राक्षस धुंधु की पीठ पर रखा!
काली मारबत को पूतना मौसी का रूप माना जाता है। इसीलिए उनके स्तनों से दूध की धाराएँ बहती रहती हैं। अनंत चतुर्थी से पहले भागवत एकादशी पर वामन जयंती मनाई जाती है। ये सभी दिन प्राचीन संस्कृति के अद्भुत धागे से गुंथे हुए हैं। बालकृष्ण और पूतना मौस की कथा विष्णुपुराण, भागवत पुराण, हरिवंश, ब्रह्मपुराण, अग्निपुराण, पद्मपुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण में थोड़े परिवर्तन के साथ दी गई है। सभी पुराणों में यही है कि कंस ने बालकृष्ण को मारने के लिए अपने भतीजे को भेजा था। हरवंश और पद्मपुराण में वह रात में आती है और बच्चों को मार देती है। काली मारबत ने रात का रंग धारण किया है। भागवत और ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार पुतना के मनी का मूल्य जो भी हो, कृष्ण के स्पर्श से उसे मोक्ष मिल गया। जब बालकृष्ण ने उसे मार डाला, तो ग्रामीणों ने उसके हाथ-पैर काट दिये और जला दिया। लेकिन उस धुएं से दिव्य सुगंध आने लगी और वह एक मुक्त आत्मा बन गई, इसलिए उसका महत्व था।
जन्माष्टमी के बाद त्यौहार एक के बाद एक आते हैं, पिठोरी अमास्या के बाद भाद्रपद में गौरी-गणपति का आगमन होता है। दरअसल उस दिन सभी लोग अमावस्या मनाते हैं, केवल दो अपवाद होते है, एक है श्रावणी अमावस्या और दूसरी है लक्ष्मीपूजा आश्विन अमावस्या, बैल पोले की दर्शग पिठोरी अमावस्या का मतलब श्रावण और भाद्रपद के बीच का विषुव है। बैल पोले से अनंत चतुर्दशी तक, कुछ त्योहार एक-दूसरे के बगल में खड़े हैं। उनके बीच एक आम कड़ी है गलियों और गलियों से होकर उत्साहपूर्ण जुलूस निकालना, बैल पोले के दिन सजे-धजे बैलों की बैंडबाजे के साथ जुलुस और अगले दिन तान्हा पोले को काली-पिली मारबत निकलती है। अनंत चतुर्दशी के दिन फिर से ढोल की थाप बजती है और सुस्त सड़को पर नाचने-झूमने लगते हैं।
श्रावणी अमावस्या पर बैलपोला सजाया जाता है। घर-घर में पूरन की रोटी की सोंधी महक आती है। शाम को बैलों के कंधे रगड़ने के बाद उनके कंधों पर हुम्मुज मंढा जाता है। बैल के सींग को रंग लगाकर बेगड चिपकाया जाता। नया दावन, पेंडी, गले में कडे, नया पहराव, शरीर पर रंगीन बिंदियां, सींग पर गोंदे, पैरों पर गठरी, जूली, बाशिंग, चाल से सजा सर्जा की गांव से बैंडबाजे के साथ जुलुस निकलता है। जब वह घर आता तो उसे नैवेद्य दिखाकर पूरन की रोटी खिलाते और दूसरे दिन नदी-नाले में तैरेंते थे।
मारबत दो प्रकार की होती हैं, काली और पीली मारबत। इसे चार दिनों तक विधिवत स्थापित किया जाता है। इस अवसर पर छोटे-छोटे सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। तान्हा पोले के दिन महाप्रसाद का आयोजन किया जाता है और जुलूस निकालकर फिर अंत में दहन किया जाता है। हर कोई युवा और बूढ़े जुलूस मार्ग के दोनों ओर खड़े होते हैं और मारबत और बडग्या को देखते हैं। इस दिन नागपुर और आसपास के गांवों से लोग अपने बच्चों को लेकर नागपुर आते हैं। सैकड़ों वर्षों की इस परंपरा को संजोकर रखने से आज हमारे नागपुर की पहचान और विशिष्टता बनी हुई है और आज शाम को यह देखने के बाद, यहां का समग्र वातावरण देखने के बाद एहसास हुआ कि यह परंपरा जरूर जीवित रहेगी। ऐतिहासिक नागपुर शहर के बारे में लोगों को जानने के लिए यह लेखन एक घटना है।
तान्हा पोले के दिन अपने लकड़ी के बैलों की मरम्मत के लिए सुबह जल्दी उठते थे। क्योंकि सुबह 10 बजे से ही मारबत चालू हो जाती है। प्यास के लड्डू और भूख के लड्डू को माँ एक डिब्बे में बाँध देती थी। नेहरू चौक पर कूद पड़ते थे और मौके की जगह पर कब्ज़ा कर लेते थे। ये मारबत बोंब मारते हुए इतवारी के मोहल्लों से गुजरते हैं, इसके साथ ही बडगे भी होते हैं। “डेंग्युले घिऊन जाय गें मारबत..... बह्याडाले घेऊन जाय रे बडग्या...” सड़क के दोनों ओर भीड़ होती है। इस भीड़ में खो जाना और बडी आँखों से मारबत को देखना वैदर्भीय संस्कृती का भव्य-दिव्य समारोह का अनुभव करना है।
नागपुर की मारबत प्राचीन संस्कृति का प्रतीक है। साथ ही यह हमारे सामूहिक सुख-दुख का आश्वस्त करनेवाला संकेत भी है। जैसे ही उसके बच्चे ‘ईडा पिडा घेऊन जा गे मारबत’ कहते हैं, तब माऊली मुस्कुराते हुए अपने पेट में ईड़ा-पीड़ा लेकर धधकती आग को गले लगा लेती है।
- प्रविण बागडे
नागपुर
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