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बप्पा को बिदाई : श्रध्दा के साथ पर्यावरण संरक्षण की कसौटी !


गणपती बाप्पा मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ.. 

भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक परंपरा में गणेशोत्सव का स्थान विशेष है। लोकमान्य टिळक ने आज़ादी के आंदोलन के समय इस उत्सव को सामाजिक एकता और जागरूकता का माध्यम बनाया। आज भी यह परंपरा जीवंत है। दस दिन तक घर-घर और सार्वजनिक पंडालों में स्थापित गणेश मूर्तियों के दर्शन से लेकर भजन-कीर्तन, सामाजिक कार्यक्रम और सांस्कृतिक आयोजन तक, यह पर्व सामूहिक आनंद का प्रतीक है। लेकिन इस उत्सव का सबसे महत्वपूर्ण और भावनात्मक क्षण है गणेश विसर्जन - जब श्रद्धालु ढोल-ताशों की थाप पर, गगनभेदी नारों के साथ बप्पा को विदाई देते हैं। गणेश मूर्ति का जल में समर्पण केवल एक परंपरा नहीं बल्कि एक गहन दार्शनिक विचार का प्रतीक है। मिट्टी से बनी मूर्ति का जल में विलीन होना यह दर्शाता है कि जीवन अस्थायी है और अंततः हर जीव पंचतत्व में समा जाता है। विसर्जन आत्मचिंतन का अवसर है, यह याद दिलाने के लिए कि शुरुआत और अंत दोनों ही प्रकृति की गोद में हैं।

गणेशोत्सव गणेश चतुर्थी से अनंत चतुर्दशी तक मनाया जाता है। गणेश चतुर्थी से गणपति बप्पा देशभर में अपने भक्तों के घरों में विराजमान होते हैं। गणेशजी को लंबोदर के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रतिमा का नौ दिनों तक पूजन किया जाता है। बड़ी संख्या में आस पास के लोग दर्शन करने पहुँचते है।  गणेशोत्सव शुरू होने के दसवें दिन समाप्त होता है, जब मूर्ति को संगीत और सामूहिक मंत्रोच्चार के साथ एक सार्वजनिक जुलूस में ले जाया जाता है, फिर पास के किसी जलाशय, जैसे नदी या समुद्र में विसर्जित कर दिया जाता है, जिसे विसर्जन कहा जाता है। गणेश विसर्जन के दौरान मंत्रोच्चार करने से गणेश बप्पा प्रसन्न होते हैं और भक्तों पर कृपा बरसाते हैं और उन्हें जीवन में सुख, समृद्धि और आनंद प्रदान करते हैं। घरों और सार्वजनिक पंडालों (मंडपों) में गणेश मूर्तियों की स्थापना और उसके बाद विसर्जन ब्रह्मांड में सृजन और विघटन के चक्र का प्रतीक है।
कई लोग सोचते हैं कि गणेशजी की प्राण प्रतिष्ठा केवल चतुर्थी के दिन ही होती है, लेकिन ऐसा नहीं है। कुछ स्थानों पर प्रतिपदा को गणराया की प्रतिष्ठापना की जाती है। यह त्यौहार प्रतिपदा से दशमी तक 10 दिनों तक मनाया जाता है। कुछ स्थानों पर गणेश चतुर्थी से अनंत चतुर्दशी तक 10 दिनों तक गणेश चतुर्थी मनाई जाती है। यह व्रत एक या डेढ़ दिन का होता है जिसमें भगवान गणेश की पूजा की जाती है और उनका विसर्जन किया जाता है। लेकिन त्योहार में और अधिक रंग भरने के लिए या मन्नत पूरी करने के लिए कई लोग गणेशजी की मूर्ति को पांच या सात दिन बाद विसर्जित कर देते हैं। इसके पीछे कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है, गणेश भक्त अपनी इच्छानुसार डेढ़, दो, पांचवें या सातवें या दसवें दिन गणेश प्रतिमा का विसर्जन करते हैं। इन दिनों को आनंद और उत्साह में बिताने के बाद, गणेश बप्पा को विदाई देने का समय आता है और गणेशजी को नियमानुसार विसर्जन कराने की प्रथा है।

गणेशोत्सव का दूसरा चेहरा और भी गंभीर है। प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी मूर्तियाँ, रासायनिक रंग और प्लास्टिक की सजावट जलाशयों को विषाक्त बना रही हैं। नदियाँ और तालाब मूर्ति अवशेषों से पाट दिए जाते हैं, जलचर जीव मरते हैं, और स्वच्छ जलस्रोत धीरे-धीरे प्रदूषित हो रहे हैं। विडंबना यह है कि जिस बप्पा को हम विघ्नहर्ता मानते हैं, उनके नाम पर हम प्रकृति में नए विघ्न उत्पन्न कर रहे हैं। अब समय आ गया है कि इस उत्सव को केवल आस्था और उल्लास का प्रतीक न मानकर उसे पर्यावरण-संरक्षण की दिशा में भी मोड़ा जाए। जैसे, मिट्टी की मूर्तियों को बढ़ावा देकर हम प्रदूषण को रोक सकते हैं। प्राकृतिक रंग और सजावट अपनाकर जल की शुद्धता बनाए रख सकते हैं। कृत्रिम विसर्जन कुंड समाज को प्रदूषणमुक्त उत्सव का विकल्प देते हैं और सबसे महत्वपूर्ण, जागरूकता, क्योंकि जब तक नागरिक स्वयं जिम्मेदारी नहीं निभाएँगे, तब तक कोई भी नियम या योजना सफल नहीं होगी।

अनंत चतुर्दशी के दिन अकेले मुंबई में हर साल लगभग डेढ़ लाख मूर्तियों का विसर्जन किया जाता है। इस प्रथा के पीछे कुछ धार्मिक कारण भी हैं कि, क्यों गणपति विसर्जन जल में ही किया जाता है। साथ ही हिंदू धर्म में कई रीति-रिवाज प्रकृति से जुड़े हुए हैं। प्रकृति के साथ एकता बनाए रखने का संदेश हमेशा अलग-अलग तरीकों से दिया जाता है, यही बात गणपति दर्शन के साथ भी है। जब महर्षि व्यास महाभारत की रचना कर रहे थे तो गणपति बप्पा लेखक की भूमिका निभा रहे थे। महाभारत लिखने का कार्य लगातार दस दिनों तक चलता रहा। इसलिए ऐसा उल्लेख है कि, गणपति बप्पा अपने शरीर पर मिट्टी लगाते हैं ताकि उनका शरीर गर्म न हो। चूंकि यह गणपति बप्पा का विशेष अवतार हैं, इसलिए कहा जाता है कि दस दिन के बाद उन्हें जलसमाधि दी जाती है। संभवतः इन दस दिनों में गोदभराई, मोदक आदि करने की परंपरा है। किंवदंती यह भी है कि चौबीसों घंटे लिखने के काम से उनके शरीर की गर्मी के कारण वह पानी में डुबकी लगाए बिना नहीं रह सकते थे। इसलिए अनंत चतुर्दशी के दिन गणपति का विसर्जन किया जाता है।

गणपति विसर्जन से जुड़ी कई बातें हैं। उनमें से एक यानी गणपति को जल तत्व का अधिपति माना जाता है। इनके विसर्जन का मुख्य कारण यह है कि, अनंत चतुर्दशी के दिन गणेश पूजन के बाद इन्हें फिर से जल में विसर्जित कर दिया जाता है, मतलब उन्हें उसी स्थान पर लाया जाता है जहां के वे हैं। प्रकृति में हर चीज़ का एक चक्र होता है, जो शुरू होता है उसका अंत अवश्य होता है। प्रकृति चक्र का यह नियम गणेश विसर्जन में परिलक्षित होता है। भगवान गणेश की मूर्ति प्रकृति से बनी है और अंततः प्रकृति में ही विलीन हो जाती है। गणेश विसर्जन के समय विसर्जन केवल मूर्ति का ही नहीं बल्कि हमारे विकारों का भी किया जाता है।

विसर्जन यात्रा भारतीय समाज की सामूहिक चेतना का अद्भुत उदाहरण है। विभिन्न जातियों, धर्मों और वर्गों के लोग मिलकर ढोल-ताशों की गूंज में, लेज़ीम की थाप पर, जयघोष करते हुए सड़कों पर उतरते हैं। यह दृश्य केवल धार्मिक आस्था का ही नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता का भी प्रमाण है। किन्तु कभी-कभी यही उल्लास अतिरेक का रूप ले लेता है। ध्वनि प्रदूषण, यातायात जाम, और दुर्घटनाओं की घटनाएँ इसकी नकारात्मक परिणति हैं। गणेश विसर्जन केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि आस्था, उल्लास और जिम्मेदारी का संगम है। बप्पा को विदा करते समय हम कहते हैं “गणपति बप्पा मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ।”लेकिन क्या हम उन्हें प्रदूषित नदियाँ, प्लास्टिक से भरे समुद्र और कचरे से सना वातावरण दिखाकर बुलाना चाहते हैं? यदि सचमुच बप्पा को खुश करना है, तो हमें उनकी विदाई प्रकृति की रक्षा के संकल्प के साथ करनी होगी। आस्था और पर्यावरण का संतुलन ही गणेशोत्सव को सच्चे अर्थों में महान बनाएगा।

- प्रविण बागडे
   नागपुर, महाराष्ट्र 
   भ्रमणध्वनी : 9923620919
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