कर्ज की बेड़ियाँ और गुर्दे की कीमत : व्यवस्था का अमानवीय चेहरा
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नागपुर (दिवाकर मोहोड)। कर्ज के बोझ तले दबा किसान इस देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। लेकिन आज उसी किसान का दर्द इतना बढ़ गया है कि उसे साहूकार का कर्ज चुकाने के लिए अपना गुर्दा बेचना पड़ रहा है। यह पढ़कर दिल दहला देने वाला है। यह सिर्फ एक किसान की त्रासदी नहीं है, बल्कि पूरी व्यवस्था की विफलता का ज्वलंत प्रमाण है।
इस अमानवीय घटना के लिए हमारी मौजूदा सरकार भी उतनी ही जिम्मेदार है जितनी कि निर्दयी साहूकार। एक तरफ महाराष्ट्र को 'प्रगतिशील राज्य' कहकर सराहा जाता है, वहीं दूसरी तरफ इसी महाराष्ट्र में किसानों को अपने अंग बेचने पड़ रहे हैं - यह मामला महाराष्ट्र की प्रगति पर एक धब्बा है।
विधानसभा चुनावों से पहले सरकार ने कई घोषणाएँ कीं। जन कल्याण के नाम पर कई योजनाएँ घोषित की गईं। 'लड़की बहन' जैसी योजनाओं के लिए सरकार के खजाने के दिवालिया होने पर भी सरकार द्वारा इन्हें बंद न करने की जोरदार आवाज उठी। लेकिन किसानों की यह पुकार नारों के शोर में दब गई। अगर सरकार को किसानों से जरा भी हमदर्दी होती, तो आज उनकी यह हालत न होती।
आज किसानों को बैंकों से आसानी से कर्ज नहीं मिलता। दस्तावेजों का अंबार, दमनकारी शर्तें, जमानतदारों पर दबाव - ये सब मिलकर किसान को हताश कर देते हैं। समय पर कर्ज न मिलने पर वह साहूकार के दरवाजे पर खड़ा हो जाता है। साहूकार मनमाने ढंग से अत्यधिक ब्याज दरों पर कर्ज देता है, और किसान धीरे-धीरे कर्ज के दलदल में फंसता चला जाता है। कर्ज का बोझ इतना बढ़ जाता है कि अंत में उसे अपना शरीर बेचना पड़ता है - इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है?
नागभिड़ तालुका के मिंथुर के किसान रोशन सदाशिव कुडे के साथ हुई घटना एक चेतावनी है। ऐसी घटना दोबारा न हो, इसके लिए सरकार को मात्र वादे नहीं करने चाहिए, बल्कि ठोस कदम उठाने चाहिए। दोषी साहूकारों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए। अवैध साहूकारी पर अंकुश लगाने के लिए एक प्रभावी तंत्र स्थापित करना समय की मांग है।
इसके साथ ही, किसानों को कम ब्याज दरों पर और सरल प्रक्रिया से अल्पकालिक ऋण उपलब्ध कराए जाने चाहिए। फसल बीमा योजना केवल कागजों पर ही नहीं रहनी चाहिए, बल्कि वास्तव में किसानों के खातों में समय पर पहुंचनी चाहिए। गारंटीकृत बाजार मूल्य, उत्पादन लागत पर आधारित न्यूनतम समर्थन मूल्य और प्राकृतिक आपदाओं के समय आपातकालीन सहायता—किसान तभी उबर सकते हैं जब इन सभी उपायों को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए।
किसान न्याय का हकदार है, दया का नहीं। देश उसके श्रम पर चलता है, राज्य की अर्थव्यवस्था टिकी है। इसलिए, जब किसान को अपने अंग बेचने पड़ते हैं, तो यह पूरी व्यवस्था की नैतिक हार होती है। इस हार को स्वीकार करने के बजाय, सरकार को संवेदनशीलता, जिम्मेदारी और तत्परता से कार्य करना चाहिए - अन्यथा इतिहास इस निष्क्रियता को कभी माफ नहीं करेगा।
