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जख्म और मरहम...

कभी मददगार होते हे, 
तॊ कभी बेरहम होते हे 
कभी जख्म देते हे 
तॊ कभी मरहम देते हें 

बहुत दिनो तक 
टिकते नही वे रिश्ते 
जो खुदगरजी के 
करम से बनते हे 
कभी जख्म देते हे 
तॊ कभी मरहम देते हे 

अपनी खुद्दारी से बनाया
हमने आशियां अपना 
जमाने से कहते हें वो 
हम उनके रहमोकरम 
पर पलते है
कभी जख्म देते हे 
तॊ कभी मरहम देते हे 

जिन्हे ना काबिल समझकर 
गेर जरूरतमंद समझा था
आज वो ही शक्स, 
हमारे नक्शेकदम पर चलते हे 
कभी जख्म देते हे 
तॊ कभी मरहम देते हे 

ज़द्दोज़हद मे ही गुजर गया 
जिंदगी का बेशकीमती वक्त 
बिना मकसद के ही 
वेबजह खटकरम करते हे 
कभी जख्म देते हे 
तॊ कभी मरहम देते हे

सब्र अंजामे का सबब 
होता हे सदा बेहतर 
मुश्किलें हालात मे भी 
'यश' का साथ हरदम देते हे 
कभी जख्म देते हे 
तॊ कभी मरहम देते हे। 

यशवंत भंडारी 'यश'
झाबुआ म. प्र.
काव्य 8537926773202599714
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