चले आइए
लगा है इश्क़ का मेला,
चले आइए
है बड़ा कातिल ये झमेला,
पर चले आइए
यहां ज़िन्दगी
लगी है दांव पे -
वतन पे कुर्बानी का
है ये मौका ,
चले आइए।
मां के आंचल को छोड़
चितवनों के जंजीरों को तोड़
कलेजा पत्थर किए
बस , चले आइए।
हम लड़े पर
अपनों से
खून बहाया भी
तो अपनों का,
शतरंज के खेल में
उंगलियां किसी और की,
मोहरा बने हम और तुम
कभी जाति पे, कभी धरम पे ,
ना रहें इधर के, ना रहे उधर के।
अपनों के सीने में
अपना ही खंजर
खोंपते रहे
खून बहाते रहे।
दिप बूझते रहे
अपने ही घरों के,
केवल रोशन होते रहे
दिये मज़ारों के।
देखते हैं तमाशा
ये दु निया वाले,
उजड़े हुए बाग
जले हुए सपनों के।
चलो इश्क़ फरमाएं
आज भेंट दें
एक लाल गुलाब
इस धरती के छाती पे।
मैं, मैं ना रहुं
तुम, तुम ना रहो
एक हो जाएं दोनों
इस मां के आंचल में।
लगा है इश्क़ का मेला
चले आइए
है बड़ा कातिल ये झमेला
पर चले आइए।
- डॉ शिवनारायण आचार्य
नागपुर (महाराष्ट्र)