एक गहन मुद्दा विधवा पुनर्विवाह...
सच बड़ा अटपटा विषय लगा पहले पर पुनः गहन अध्ययन कर हर एक पहलुओं पर विचार कर ज़ज्बातों को मद्देनजर रखके सोचा तो बहुत ही गहरा और अंतर्मन को छू जाने वाला ये एक मुद्दा लगा।रोक न पाई अपने जज़्बातों को पंख लगा शब्दों मे उकेरने को।सच विधवा का पुनर्विवाह क्या गलत है या क्या खता उस विधवा की,क्या उसे साज़ श्रृंगार से वंचित रखने का हमें कोई हक है?क्या उसकी ख्वाहिशों को रीतिरिवाज के बलि चढ़ाना कहां तक सही है सोचिये दिल से सोचिये यदि यहीं हमारी बेटी छोटी उम्र मे विधवा हो जाऐ और वो रोती रहे ताउम्र दर्द मे उफ्फ्फ मात्र कलपना ने ही मुझे झकझोर दिया। मात्र समाज मे इज्जत की खातिर हम किसी अपने को दर्द मे तड़पता नहीं देख सकते क्या कसूर उस विधवा का जो हाल ही में शादी की और उसका पति या तो किसी के व्दारा मारा गया,या सीमा पे शहीद हो गया,या किसी भी कारणवश इस दुनिया मे ही ना रहा।क्या कसूर ऐसे मे उस छोटी उम्र मे विधवा हुई स्त्री का?इस दुनिया मे हर किसी को अपने नैतिक अधिकारों और हसने का हक है। अठारह वर्ष बाद बालिग होने पर हम पूर्णतः स्वतंत्र है अपने अच्छे,बुरे के बारे मे सोचने के लिये फिर उस विधवा को भी हक है कि वह अपने नैतिक अधिकारों के अंतर्गत स्वतंत्र रुप से अपने लिये सही या गलत का निर्णय ले सकती है।
आज भी कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां बालविवाह कर दिया जाता है और छोटी उम्र मे ही विधवा कई जिंदगी जी रही काले वस्त्रों मे उन बेवाओं को मैंने बहुत करीब से देखा है कैसे समाज की नज़र उन पर पडती है ये भी भलीभांति देखी हूं, उनपे कसे जाने वाले फितरे जो बहुत ही जघन्य साथ शर्म सार भी होते हैं।सच अपने तो अपने समाज भी ऐसे लोगों का जीना दुश्वार कर देता है।
आज भी कई ऐसे शहर हैं जहां बालविवाह कर दिया जाता है और कई लड़कियों के पति ना रहते तो ऐसे मे बालय अवस्था मे विधवा बालिका का क्या कसूर क्या वो ताउम्र विधवा का दाग लेकर जीये।नहीं।
हर किसी को एक साथी की जिंदगी मे जरूरत होती है ऐसे मे यदि कोई विधवा की पुनः शादी की जाये रज़ा मंदी के साथ तो क्या बुराई है।हर किसी को जीने और मुस्कुराने का हक है। कोई भी इस हक को हमसे छीन नही सकता।
अगर विधवा का पुनर्विवाह किर उसके बेरंग जिंदगी को रंगों संग भरा जाऐ तो ऐसे मे वो भी बेसहारा दर्द भरी जिंदगी मे एक सहारा पाके पुनः पनप उठती है।कोई अपराध नहीं यदि कोई विधवा पुनः जिंदगी मे रंग भरने का सपना देखती है तो समाज और रीतिरिवाज उस विधवा को जिंदगी ना खिलाऐगा और ना ही उस विधवा की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेगा एक विधवा या एक औरत के अकेले रहने पे दस ऊंगलियां, और गंदी नज़र समाज की ही रहती है चाहे वो कितनी भी पवित्र हो लोग ताने कसते ही हैं।पर पुनर्विवाह से जहां उसकी जिंदगी संवरती है तो साथ मे एकदूसरे को सहारा भी मिल जाता है।
एक नाम सिर्फ़ पति का और सर से विधवा नाम का कलंक हट जाता है साथ ही एक औरत को एक सुरक्षा की वो महफ़ूज़ है किसी की निगहबान मे रह के कोई उसके पति के रहते उसे चोट नहीं पहुंचा सकता।।
बल्कि जिस ससुराल मे रह यदि कोई भी बहू विधवा हो जाऐ किसी कारणवश छोटी उम्र मे ही तो ससुराल वालों को ही समाज को न देखते हुए बहू की जिंदगी को संवारते हुए उसको ही बेटी समझ ख्याल रखते हुए कन्यादान कर जिंदगी जीने का पुनः उपहार देना चाहिए।
ऐसा होता भी है बहुत से ऐसे किस्से सुने भी हैं बहुत नसीब वाली होती वो बेटी जिसे मां बाप के रूप मे ससुराल मे ही सास ससुर मिल जाते हैं।जो अपनी बहू को बेटी का दर्ज़ा दे उसी का कन्या दान कर सौभाग्यवती उसे बनाते हैं और ये सही भी है जब हमें ताउम्र एक साथी की जरुरत महसूस होती है जिससे हम सुख दुख का साथी मान सब अनुभव साझा कर प्रसन्नता का अनुभव करते हैं तो एक विधवा की भी ख्वाहिशों को सितारों सा जगमगाना एक दम उचित है।तो आइये इस गहन मुद्दे पे एक बार गहनता से विचार करें और किसी के अंधकार मय जीवन मे प्रकाश भर उसे हसने,श्रृंगार करने,और जीने का हक प्रदान करें अन्यथा एक अकेली औरत का समाज जीना दुश्वार कर देता है।एक सहारा बने किसी का।
- वीना आडवानी,
नागपुर, महाराष्ट्र