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स्त्री - लेखन शगल नहीं, जिम्मेदारी का एहसास है : सूर्यबाला




स्त्री - लेखन ड्रांइग रूम लेखन नहीं है, न ही लेखन उसका शगल है बल्कि यह जिम्मेदारी का एहसास है। लेखनी के माध्यम से स्त्री ने अपनी सामाजिक भूमिका को परिपूर्ण करने का प्रस्ताव रखा है। यह विमर्श सामाजिक समन्वय और संतुलन की प्रस्तावना रखता है। यह बात भारत-भारती सम्मान से अलंकृत वरिष्ठ कथाकार सूर्यबाला ने कही। वे हिन्दी विभाग, राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज नागपुर विश्वविद्यालय और राजकुमार केवलरमानी कन्या महाविद्यालय नागपुर के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित राष्ट्रीय वेबिनार में बोल रही थी। 

वेबिनार का विषय था' स्त्री विमर्श: भारतीय संदर्भ ।' उन्होंने कहा कि भारतीय परम्परा में स्त्री परिवार - समाज की धुरी रही है।भारतीय परम्परा में नारी को शक्ति, देवी और जगत् की धात्री कहा गया है।, यह संसार उसी शक्ति की निर्मिति है। यहां स्त्री पुरुष की अनुचरी नहीं, सहचरी रही है। मां,बहन, बेटी, पत्नी- उसकी किसी भी भूमिका को सम्मान और आदर के साथ देखा गया है।
       
स्त्री मुक्ति के सवाल पर उन्होंने कहा कि स्त्री विमर्श मुक्ति की चाहत नहीं है। मुक्ति उसे चाहिए भी नहीं, उसे भी परिवार और समाज चाहिए। परिवार में ही उसे उसका वह स्वत्त्व और स्वाभिमान चाहिए जो स्त्री हो या पुरुष सब के लिए जरूरी होता है। कोई भी समाज समन्वय और संतुलन से आगे बढ़ता है । सामाजिक समरसता के लिए यह अत्यावश्यक होता है। स्त्री विमर्श बहुलांश में इसी समरसता का पक्षधर है। यही उसकी आकांक्षा है। 
     
कार्यक्रम का उद्घाटन करते हुए विश्वविद्यालय के प्र-कुलगुरू प्रो. संजय दुबे ने कहा कि भारतीय परम्परा में मातृ शक्ति को महत्व दिया गया है। परिवार में उसकी केंद्रीय भूमिका रही है। आज आधुनिक भारत की निर्मिति में स्त्री बराबर की भागीदार है। ऐसा कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं है जहां स्त्री की सशक्त उपस्थिति दर्ज न हो।उन्होंने कहा कि किसी भी विकसित समाज के लिए प्रत्येक मनुष्य की स्वतंत्रता पहली आवश्यकता होती है।  समाज में स्त्री को समान अधिकार मिले, इस पर दृढ़ता से विचार करने की आवश्यकता है।
   
प्रास्ताविक रखते हुए हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डॉ.मनोज पाण्डेय ने स्त्री विमर्श की अवधारणा को रेखांकित करते हुए कहा कि समाज के सर्वांगीण विकास के लिए स्त्री जीवन की चिंताओं और चुनौतियों पर ईमानदारी से विचार किया जाना चाहिए। अपने स्वागत उद्बोधन में महाविद्यालय की प्राचार्य डॉ.उर्मिला डबीर ने स्त्री विमर्श को आज का एक प्रमुख सामाजिक सरोकार बताया। उन्होंने कहा कि स्त्री अबला नहीं, सबला है। उसे उसकी शक्ति का एहसास कराने की आवश्यकता है। स्त्री विमर्श समाज में जागरूकता लाने की पहल कर रहा है, यही उसकी सबसे बड़ी भूमिका है।
        
अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए समाजसेवी प्रा. विजय केवलरमानी ने कहा कि स्त्री भारतीय परिवार की आधारशिला है। स्त्री शक्ति है। समाज संचालन की धुरी है। समाज की प्रगति के लिए उसके महत्व की स्वीकृति जरूरी है। उद्घाटन सत्र का धन्यवाद ज्ञापित करते हुए संयोजिका डॉ.गीता सिंह ने कहा कि स्त्री अधिकार नहीं, सम्मान की अभिलाषी है। 
     
दूसरे सत्र की अतिथि वक्ता वरिष्ठ स्त्री विमर्शकार नीरजा माधव ने अपने उद्बोधन में कहा कि संवैधानिक ही नहीं, सामाजिक दृष्टि से भी भारतीय समाज कुछ अपवादों को छोड़कर स्त्री की स्वतंत्रता का पक्षधर रहा है। वैदिक काल से ही अपने यहां स्त्री की महिमा और गरिमा का बखान मिलता है। स्त्री अपनी विशिष्ट क्षमता के कारण ही कभी उपेक्षिता नहीं रही। जिस समाज ने उसकी उपेक्षा की, वह प्रगति नहीं कर सका। 
       
पद्मश्री से सम्मानित वरिष्ठ लेखिका उषा किरण खान ने कहा कि स्त्री विमर्श का दायरा बढ़ाने की जरूरत है। जब तक इसमें ग्रामीण स्त्री के स्वर को शामिल नहीं किया जाएगा तब तक पूरे भारतीय समाज का यह प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। दुर्भाग्य से खाते-पीते शहरी समाज ने इसे 'हैक' कर रखा है। गांव की स्त्री की चिंता ही भारतीय स्त्री विमर्श का केन्द्र होना चाहिए। ग्रामीण स्त्री के हक की लड़ाई जब तक इसका केन्द्रीय एजेंडा नहीं बनता तब तक भारतीय समाज का समग्र विकास नहीं हो सकता।
   
अतिथि वक्ताओं का परिचय डॉ. राहुल वाघमारे, डॉ. उमावती पवार, डॉ. लक्ष्मण पेटकुले और डॉ. श्याम प्रकाश पांडे ने दिया तथा आभार प्रदर्शन हिन्दी विभाग के सहायक प्रोफेसर डॉ.संतोष गिरहे ने किया। वेबिनार के अंत में वक्ताओं ने अनेक प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर भी दिया। देश भर से लगभग पांच सौ लोगों ने इसमें सहभागिता की।
साहित्य 5016000218565963256
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