प्रेम नैसर्गिक स्वभाव है और द्वेष खुद की उपजाई हुई खर-पतवार है!
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गहन चिन्तन
हम एक दूसरे को बेशर्त प्रेम क्यों नहीं कर पाते? या कहें कि शायद हम बेशर्त प्रेम करना ही नहीं चाहते। द्वेष जरूर हम बेशर्त कर सकते हैं, उसकी बड़ी सामर्थ्य है। मन दुःखी हो जाता है यह सोच कर कि हमारा व्यक्तित्व इतना अधिक संकुचित है कि हम किसी की छोटी सी कमी भी नजरंदाज नहीं करना चाहते। बल्कि उस बेहद छोटी सी कमी को आकाश जैसा विशाल बना कर द्वेष की उपजाऊ भूमि तैयार करते हैं। एक ऐसी कमी कि गहराई से देखने पर शायद जिसका अस्तित्व ही न मिले। क्यों द्वेष हमारे लिए इतना महत्वपूर्ण हो जाता है कि उसकी तपन से हम प्रेम के अंकुर को ही स्वाहा कर देते हैं?
प्रेम परमात्मा से प्राप्त हमारा नैसर्गिक स्वभाव है। द्वेष बाद में खुद की उपजाई हुई खर-पतवार है जो प्रेम की नैसर्गिक उपज को शनैःशनैः खा जाती है। प्रमाणस्वरूप किसी शिशु को देखें। वह सिर्फ प्रेम जानता है। जो भी पास आता है, वह मुस्कुराता है। यह प्रेम की मुस्कुराहट होती है, बेशर्त प्रेम की। फिर बाद में न जाने ऐसा क्या हो जाता है कि बच्चा वयस्क होते ही, द्वेष की खर-पतवार में रमने लगता है। चेहरे से निर्दोष प्रेम की नैसर्गिक आभा लुप्त हो जाती है और वहां द्वेष का खुरदुरा लेप पसरा नजर आने लगता है। पर ऐसा क्यों? हमीं वैसे थे जो अब ऐसे हो गए! पर क्यों? ऐसे क्यों हैं?
- प्रभाकर सिंह
प्रयागराज (उ. प्र.)