वास्तविक धर्म के मूल सिद्धांतों की पूर्ण अवहेलना!!
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हिन्दू, इस्लाम, ईसाई और अन्यान्य धर्मों के अनुयायी अपने-अपने धर्म को विशिष्ट और अन्यों को अवशिष्ट मानने के पक्षधर होने में अपनी पूर्णता मानने लगें तो सौमनस्य के भाव का क्या विकास होगा? हर धर्म का अनुयायी यदि मात्र स्वयं के धर्म को ईश्वर द्वारा चुना हुआ समझे तथा अन्य धर्म वालों को ईश्वर द्वारा नहीं चुना गया समझे तो इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है? ऐसी सोच से संसार के धर्मों में समभाव कैसे हो सकता है?
विडम्बना यह भी है कि धर्मों के तथाकथित आचार्य, उलेमा, पादरी इत्यादि भी इसी विचार के पोषक दिखते हैं। वास्तविक धर्म के मूल सिद्धांतों की पूर्ण उपेक्षा करते हुए तथाकथित हिन्दू गौरव, तथाकथित इस्लामी गौरव, तथाकथित ईसाई गौरव इत्यादि की रूढ़ियों को मन में गहरे तक बैठा कर किस ईश्वर की आराधना, किस आध्यात्मिक सत्य को पाने की तपस्या होती है?
इन तथाकथित धर्मगुरुओं द्वारा क्यों धर्म को एक पाखण्डपूर्ण रूढ़ि से ज्यादा नहीं समझा जाता? क्या प्राचीन काल का हिंसक कबीलाई व्यवहार ही परिष्कृत भाषा में इन तथाकथित धर्मगुरुओं के द्वारा समाज में धर्म के रूप में प्रचारित प्रसारित किया जा रहा है? जबकि विभिन्न धर्मों के मूल ग्रंथों में आपसी मानवीय व्यवहार के परिष्कार पर सबसे ज्यादा जोर दिया गया है। फिर ऐसा व्यवहार में लाना क्यों कठिन बना दिया गया है? कुछ समझ में नहीं आता।
- प्रभाकर सिंह
प्रयागराज (उ. प्र.)