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पुरस्कार की भूख



लिखना, पढ़ना और छपना, छपाना हर कलमकार का स्वाभाविक गुण धर्म है। पुरस्कार प्राप्ति इस धर्म की स्थापना का प्रमाणपत्र और मुहर है। इस मुहर और उपाधि की आकांक्षा से परे का लेखक ही वस्तुतः शब्द की साधना करता है।

वास्तविक कलमकारों के लिये प्रतिपक्ष की चेतना ही कलम की सियाही बनती है। पुरस्कार जीवी रचनाकार इस सियाही के स्थान पर रंगों का प्रयोग करता है जो सत्ता की ड्योढ़ी पर सजे गुलदस्तों से मेल खाते हैं।

पुरस्कार प्राप्ति के बाद स्वनाम धन्य लेखक और लेखिकाएं उपाधि प्राप्त वक्ता बनकर कुछ भी बोलने का अधिकार पत्र हासिल कर लेते हैं। यही हाल कलाकारों का भी है सत्ता के हरम में नृत्य कर पाये पुरस्कार रूपी नजराने को गले में डालकर राष्ट्र को ही भीख में मिली विरासत तक बता डालते हैं।

लेखकों, चिंतकों, विचारकों में यदि प्रतिरोध की चेतना जीवित होती तो अपनी कलम को ही मशाल बनाकर वैचारिक क्रांति का विगुल बजा सकते थे लेकिन उनकी भी तो अभिलाषा उसी हरम में उपाधि पाने को आतुर है।
डेढ़ सौ किताबें छपवाकर विभिन्न संस्थानों में पुरस्कार खातिर पथसंचरण करने वाले और  तमगों से झोली भरने वाले लिक्खाडों से कैसी आशा? उपाधिजीवी तो आका को काका ही लिखेगा।

लिखना ही है तो अग्निकुंड पर बैठाई गयी राष्ट्र की अस्मिता पर लिखो, भूख पर लिखो, अन्न पर लिखो, पेट पर लिखो, अंतड़ियों पर लिखो और लिखो उस  कोख पर जिसका लाल सीमा पर शहीद होता है....

हजारों रुपयों के विक्रय मूल्य वाली सजी पुस्तकें तुम्हारे जाते ही कबाड़ी के घर का रास्ता नाप लेंगी।चंद पैसों पर फुटपाथ पर बिकने वाली पुस्तकों के आवरण पृष्ठ में से झांकते प्रेमचंद, तुलसी, कबीर, सूर और प्रसाद, पंत, निराला को अपने पहने गये कपड़ों से पोंछ कर माँ वागीश्वरी के उपासक उसके अध्ययन का रसपान कर अपने पुस्तकालय की शोभा बनायेंगे।
अभी बस इतना ही...

'अमीर पर लिख, गरीब पर लिख,
जंजीर पे लिख या प्रेम की पीर पे लिख;
सिर्फ इतनी सी गुजारिश है यार... 
तू थोड़ा ही सही भूख की तासीर पर लिख 
और लिख सके तो
सत्ता के मरे ज़मीर पे लिख..."

 - अंजनीकुमार सिंह
  अवध
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