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दीप संवाद


धनतेरस पर्व की संध्या पर घर की देहरी से लेकर छत तक जलाये गये दियों ने कुछ कहा है। उन्होंने कुछ अनकहे संवाद किये हैं। जलती हुई बाती और सोखे गये तेल के बीच के संवाद को भी दिये ने सहेज के रखा है। दियों का भी अपना - अपना भाग्य है। कोई प्रेमचंद की देहरी पर जलेगा तो कोई सेठ नेमचंद की ड्योढ़ी पर। अपने - अपने भाग्य पर इठलाते और कुम्हलाते दियों की कथा-व्यथा सिर्फ एक है - जलना और जलते ही जाना। 

जलकर प्रकाश देना किताबों का आदर्श बन हवेलियों के अध्ययन कक्ष की शोभा बनता है और बुझे दियों का ठोकर खाकर चूर होना प्रेमचंद की पुस्तकों की कहानियों का तथ्य। भारत के धर्म स्थलों से जगमगाते दियों की लड़ियों से लेकर सत्ता के महलों पर इठलाते दियों की दास्तानों में सिर्फ एक अंतर है - उनकी दीप्ति की दिव्यता और भव्यता में।

आज दीपमालिका के त्योहार पर मर्यादा पुरुषोत्तम द्वारा स्थापित मूल्यों के विजय पर्व की खुशियां प्रकाशोत्सव के रूप में दिखाई दे रही हैं लेकिन उन मूल्यों का हमने कितना क्षरण किया है, यह दिये के नीचे दबे अंधेरों से पूछिये। दीपों की माला के नेपथ्य में खड़ा इन्हें बनाने वाला कुम्हार आज स्वयं सारे दिये बेंचकर भी अपने घर दिया नहीं जला सका। 

कुम्हार के घरों की छोटी बच्चियां औऱ बच्चे जब सड़कों के किनारे दिये, कोसे तराजू, घंटी लेने का आग्रह ग्राहकों से कर रहे थे तो मौजूदा प्रगतिशील युगबोध अपनी आत्महन्ता चेतना पर किंकर्तव्यविमूढ़ था।खिलखिलाता बचपन स्वयं दिया बनकर प्रकाशमान था। खाँची भर दिया बेंचकर भी जब पिता किलो भर मिठाइयां, खिलौने व पटाखे घर न ला सके तब दियों ने मौन संवाद में उस परमसत्ता से यक्ष प्रश्नों के निरुत्तर भाव को पढ़कर चुपचाप जलते रहने में भलाई समझी। वही राम जिनके घर लौटने के जश्न में आज अयोध्या में करोड़ों खर्च हुये।लाखों रुपयों के दिये जलकर जश्न की शोभा बने।

पेट्रोल, डीजल, गैस की आकाश छूती कीमतों ने व्यक्ति के खाद्यान्न से लेकर जरूरत के सभी सामानों में आग लगा दी। सरसों के तेल क्रय न कर पाने वाले किसान या कुम्हार से पूछिये जनाब! तुम्हारी देहरी का दिया क्या हुआ ? चड्ढी और फ्रॉक में दिया बेंचते नौनिहालों के चेहरों को पढिये ! 

हिंदुस्तान के माथे पे सजी झालर के हर बल्ब टिमटिमाते नजर आयेंगे।
सरकार; मंहगी गाड़ियों में 115 रुपये प्रति लीटर पेट्रोल को धुंआ बनाते किस्म - किस्म की मंहगी मिठाईयों के साथ दांत चियारे, नकली खुशी का नकाब लगाए जब अपने घरों में पंहुचती है और लोक के खून चूसकर बनवाये गये करोड़ों के गहनों से लदी बीबियां उनका इस्तकबाल करती हैं तब याद आते हैं - मोहम्मद इकबाल जिनकी शायरी में अशफाक, रोशन, लाहिड़ी, बिस्मिल, भगत, चंद्रशेखर आदि वतन परस्ती में खुदगर्ज बनकर मुल्क की बर्बादी के अफसाने पर मौन हैं। दीपमालिका के इस महापर्व पर बधाई लेने व देने वाले कलमकारों से सिर्फ इतनी सी दरख्वास्त है साहेब! कलम की सियाही को सूखने मत दीजिये, तेल मंहगा ही सही अपनी सियाही को ही दिये में डालकर क्रान्तिदीप को प्रज्ज्वलित करिये जिसकी रोशनी में मुल्क को गिरवी रखते बागबान के स्याह चेहरे को पहचाना जा सके। अभी बस इतना ही....

रामलला तुम कब आओगे,
उस देहरी पर दीप जलाने;
जिस देहरी ने भूख मारकर तेरे लिये दिये बनाये
मंहगाई की मार झेलकर 
अरमानों की मृत शैय्या पर 
भावों के हैं दीप जलाये....
रामलला तुम कब आओगे...?
राम लला तुम कब आओगे....?

- अंजनीकुमार सिंह, अवध, (उत्तर प्रदेश)
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