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बदलता परिवेश - सिमटती नैतिकता


आजादी से पूर्व जब देश बंटा नहीं था, तब दिल भी एक था। विभाजन देश का क्या हुआ, संयुक्त परिवार भी बिखरते गए। भाई-भाई अलग हो गये। चूल्हे अलग हो गए और फिर आपसी प्रेम भी घटता गया। एक ही थाली में वर्षों साथ-साथ बैठकर खाने वाले, खेलने वाले संपत्ति के लिए बंट गये। टूटते हुए परिवार आज बढ़ रहे हैं लेकिन इस ओर चिन्तन का हमारा मन नहीं। वैचारिक मतभेद तक बात समझ में आती हैं किंतु एक ही छत के नीचे रहने वाले एक - दूसरे का चेहरा तक देखना नापसंद कर दें तो यही समझ में आता है कि मानवीय मूल्यों का अब कोई मूल्य नहीं रहा।

मानवीय संवेदना लगभग समाप्त हो रही हैं। संकीर्ण मानसिकता ने निजी स्वार्थो को हम पर हावी कर दिया। तभी तो परिवार का अर्थ 'पति-पत्नी और बच्चों तक ही सिमट कर रह गया। खास अवसरों पर परिवार के सदस्य, रिश्तेदार, जुटते जरूर है किंतु उनके बीच वह उत्साह वाले संवाद बहुत कम ही सुनाई देते हैं। अब हम घर आए मेहमानों का उस गर्मजोशी से स्वागत नहीं करते, जो कभी हमारी
मेहमाननवाजी की विशेषता हुआ करती थी। औपचारिकताएं जरूर निभायी जा रही हैं, यह ध्यान रखते हुए कि उसने हमारा किस तरह स्वागत किया था, किस तरह का व्यवहार किया था। क्या-क्या दिया था और क्या-क्या पाने की हमारी अपेक्षा थी।

पहले हमारे विचार इतने हल्के नहीं थे। तब त्याग, बलिदान, स्नेह का महत्व हुआ करता था। नफा - नुकसान के कुछ ज्यादा ही चिन्तन ने हमें स्वार्थी बना दिया। आपसी मतभेद की वैसे तो वजह कुछ भी हो सकती है किंतु एक प्रमुख वजह आपसी स्पर्धा द्वेष, ईर्ष्या, मोह और संकीर्ण मानसिकता है। एक-दूसरे को नीचा दिखाने में संतुष्टि मिलना दुर्भाग्य ही तो कहा जाएगा। पाश्चात्य शैली हमारे दिलो - दिमाग पर हावी हो चुकी है। बड़े-बुजुर्गों का अनादर बढ़ रहा है। जनरेशन गैप पहले भी था किंतु तब लोग मर्यादाओं का ख्याल रखा करते थे। साठ के दशक के बाद नैतिक पतन तेजी से हुआ। 

मर्यादाएं बंधन लगने लगी और सभी लक्ष्मण रेखा को मिटाने में जुट गये। संयुक्त परिवार पद्धति के फायदे अब जरूर याद आने लगे हैं। वह इसलिए नहीं कि हमें अपनी गलतियों का अहसास हो गया बल्कि इसलिए कि महंगाई ने अलग-अलग रहने के दोषों को स्पष्ट रूप से उभारा। बच्चों से हमारी जिद ने उनका बचपन छीन लिया। आज वे उन संस्कारों से दूर हो रहे हैं, जो कभी बहुत जरूरी कहे जाते थे। संयुक्त परिवार में बच्चे अकेलेपन का कभी शिकार नहीं होते थे जबकि आज ऑटिज्म (एकाकीपन) एक प्रमुख समस्या बन चुकी हैं। बच्चे गुमराह हो रहे हैं। बिगड़ रहे हैं। सच कहें तो समय से पहले जवान हो रहे हैं। मां-बाप की सेवा करते जब उन्होंने अपने मां-बाप को कभी नहीं देखा तो वे भला क्यों अपने मां-बाप के संग रहना पसंद करेंगे।

नीति-अनीति का भेद हम भूलते जा रहे हैं। पति - पत्नी के रिश्तों में दरार बढ़ रही है। आपसी सामंजस्य गडबडाने लगा है। पति - पत्नी भी अब मजबूरीवश संबंधों को ढो रहे हैं। बढ़ते हुए अवैध शारीरिक संबंध और तलाक के मामले अनदेखे नहीं किये जाने चाहिए।
आधुनिकता का भूत सिर चढ़कर बोल रहा है। नकली जिन्दगी जीने की लत कुछ ऐसी हावी हुई कि हम जिन्दगी जीने की कला तक भूल गए। नैतिक पतन ने हमें भ्रष्टाचारी व रिश्वतखोर बना दिया। राष्ट्र का चरित्र ही परिवर्तित हो गया। चरित्र निर्माण की कभी किसी ने फिक्र ही नहीं की। नशे की बढ़ती हुई लत और ऐशो आराम का जीवन जीने की हावी होती प्रवृत्ति घातक सिद्ध हो रही हैं किंतु किसे परवाह है? सभी ने जीवन का लक्ष्य बदल लिया है। 

दौलतमंद बनने की धुन ऐसी सवार हुई है कि लोग कुछ भी करने को तैयार है। किसी भी गलत कार्य से किसी को आपत्ति नहीं। गिने चुने कुछ लोग ही जीवन जीने का अंदाज समझ रहे है। बढ़ते हुए शहरीकरण ने आपसी संबंधों को झकझोर कर रख दिया। एक ही बिल्डिंग में रहने वाले लोग एक दूसरे को नहीं जानते और न ही जानना चाहते हैं। कुछ ज्यादा ही रिजर्व होती जा रही है नई जमात। किसी के पास भी समय नहीं। यह सोच गलत है। सच्चाई तो यह है कि हम सभी समय के दुरूपयोग करने की बीमारी का शिकार हो चुके हैं।
ईमान-धरम ही पैसा हो गया। पैसा हाथ में तो दुनिया साथ में अन्यथा सगे भी परायों से खतरनाक व्यवहार करने लगते हैं। पशुओं सी क्रूरता इंसान में बढ़ रही हैं। अपने से कमजोर का काम तमाम करने की भी आकांक्षा बढ रही है। 

सबसे बड़ा रूपैया ने इंसान को दौलत का पुजारी बना दिया। मंदिर में व्यापार होने लगा। श्रद्धा को ही मजाक बना दिया लोगों ने। सभी को अधिकार चाहिए, जिम्मेदारी नहीं। यदि इसी रफ्तार से प्रगति होती रही तो आगे समय और भी त्रासदीपूर्ण हो जाएगा। सिमटती हुई नैतिकता को बचाना ही होगा अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को जीवित रखने के लिए। सभ्यता और संस्कृति ही देश को वर्षो जीवित रखती हैं। काश! हम अपनी अमूल्य धरोहर के महत्व को समझ पाते। हमारी स्थिति शेखचिल्ली की तरह हो रही है। हम अपनी ही जड़ों को खोदने में जुटे हुए हैं। हर शाख पर उल्लू बैठा है, फिर भी हम स्वयं को उल्लू मानने को तैयार नहीं।

भारत की तस्वीर धुंधली लग रही है ! भौतिकवादी अमरीका वाले भारतीय बनने का अभ्यास कर रहे है। हमारी संस्कृति ने ही पश्चिमी देशों में बदलाव लाया हैं। वहां लोगों ने भौतिकवाद के तांडव को शांत करने का प्रयास भी किया है। हम अपनी ही खूबियों को मिट्टी में मिलाने पर तुले हैं। आयुर्वेद को पश्चिमी देश सहृदय स्वीकार रहे हैं। हर्बल मेडिसिन की बढ़ती लोकप्रियता ने पश्चिमी देशों के जीवन को भी बदला है। योग, अध्यात्म और चिंतन को भी यूरोपीय देशों में काफी अच्छा प्रतिसाद मिल रहा हैं। हमारी सभ्यता और संस्कृति की खूबियों से समूचा विश्व लाभान्वित हो रहा है। वहीं हम अपनी ही संस्कृति को अपनाने से कतराने लगे हैं। हो सकता है कल हम महाशक्ति भी बनकर उभर जाएं किंतु क्या अपनी अनमोल सभ्यता और संस्कृति की संरक्षा कर पायेंगे? क्या फायदा ऐसे बदलते परिवेश का जो देश की सभ्यता एवं संस्कृति को ही नष्ट कर दे।

- दीपक लालवानी
नागपुर (महाराष्ट्र)
लेख 6303644003894195826
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