देश के चहुंमुखी विकास के लिए जातीय श्रेष्ठता की झूठी घमंड भरी सोच से निजात पाना नितांत आवश्यक !
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देखते हैं कि सोशल मीडिया पर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जाति के लोग मौके बेमौके अपनी जाति की श्रेष्ठता के कसीदे पढ़ते नजर आते हैं। इन कसीदों में ऐसे गुणों का बखान होता है जो शायद ही आज की उपरोक्त जातियों में पाये जाते हों। सब एक दूसरे से श्रेष्ठ होने का दावा पेश करते दिखते हैं, हालांकि जिससे श्रेष्ठ हैं उस दूसरे को नामतः सम्बोधित नहीं किया जाता।
लेकिन इनमें कभी भी उन लोगों का कोई गुणगान नहीं होता जिन्हें शूद्र जातियों में शामिल किया जाता है। ऐसा तब है जब कि इन्हीं शूद्र कही जाने वाली जातियों से भारतीय समाज की व्यवस्था के सुचारु रूप से चलते रहने का बहुत बड़ा बोझ है। शहरों की गलियों की नालियों से लेकर न जाने कहां कहां तक के छोटे बड़े मेहनत व पसीने वाले काम इन्हीं की वजह से सम्पन्न हो पाते हैं।
यद्यपि इन शूद्र कही जाने वाली जातियों की अच्छी अच्छी प्रतिभायें उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित होकर देश को गौरवान्वित कर रही हैं, पर आज भी इनके प्रति उपेक्षाभाव बहुत कम नहीं हो पाया है।
इस उपेक्षाभाव के सहकारी भाव का परिचय सोशल मीडिया पर मिलता है, जहां सामाजिक श्रेष्ठता सारा श्रेय सिर्फ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जाति के लोगों द्वारा उदरस्थ कर लिया जाता है। आज भी ये तथाकथित श्रेष्ठ वर्णी लोग शोषक की ही भूमिका में ही अपने को सम्मानित मानते हैं, उसी में खुद को ज्यादा सुविधाजनक महसूस करते हैं।
जब तक यह जातीय श्रेष्ठता की झूठी घमंड भरी सोच भारत में रहेगी, तब तक यह देश सामाजिक और आर्थिक श्रेष्ठता की पायदान पर ऊपर नहीं चढ़ सकेगा। देश बदलने के लिये मूढ़ता भरी सोच बदलनी पड़ेगी। पर फिलहाल तो यह होता नहीं दिखता।
- प्रभाकर सिंह
प्रयागराज (उ. प्र.)