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वक्त


महसूस हो, 
पर दिखे न कभी, 
पल-पल रंग बदले,
बड़ा ज़ुल्म ढाए,
ठहरे ना कभी ये, 
ना तेरे ख़ातिर 
ना मेरे ख़ातिर ।

हाथों से फिसलता 
रेत की तरह,
ना माने प्रित बंधन
ना तेरे ख़ातिर,
ना मेरे ख़ातिर ।

बड़ा निर्दयी है यह
ज़ुल्मी सनम, 
लौट के ना आए, 
ना तेरे ख़ातिर 
ना मेरे ख़ातिर ।।

बड़ा अड़ियल है यह,
रोके नहीं रुकता
किसी के लिए,
ना तेरे ख़ातिर 
ना मेरे ख़ातिर ।।

कुछ रिश्वत ही दो,
या दो प्यार की झप्पी,
या बहलाओ देकर कुछ खिलौने, 
हिरे -जवाहरात ही क्या, 
ये जहां लुटा दो।

वक्त बड़ा ढीठ है, 
बातें न माने,
ना तेरे ख़ातिर 
ना मेरे ख़ातिर ।।

- डॉ. शिवनारायण आचार्य ‘शिव’

नागपुर (महाराष्ट्र)
काव्य 5681300044500046899
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