बगीचों में सुबह : मोबाइल की गिरफ्त में बचपन
https://www.zeromilepress.com/2024/12/blog-post_10.html
बगीचों में बिगडता बचपन : 2
नागपुर। सुबह की ताज़ी हवा, चहचहाते पंछी, और हरी-भरी घास पर ओस की बूंदें—बचपन के ये पल अब केवल किताबों और कविताओं में रह गए हैं। आजकल की सुबहें बगीचों में उतनी सजीव नहीं, बल्कि एक अजीब-सी खामोशी में लिपटी हैं। बच्चे हाथों में बल्ला या फुटबॉल की जगह मोबाइल थामे, घास पर नहीं, बेंच पर जमे दिखाई देते हैं। यह नजारा बगीचों में सुबह आम हो गया है। ऐसे ही दयानंद पार्क बगीचे की सुबह यह नजारा मन को विचलित कर गया।
बच्चे स्क्रीन की दुनिया में खोए
जिन पार्कों में कभी हंसी-ठिठोली गूंजती थी, वहां अब सिर झुकाए बच्चे स्क्रीन की दुनिया में खोए रहते हैं। चेहरे पर न कोई मुस्कान, न कोई उमंग—बस आंखों में मोबाइल की चमक। खेल के मैदान का स्थान ऑनलाइन गेम्स ने ले लिया है। कबड्डी, पिट्ठू, और छुपन-छुपाई जैसे खेलों की जगह PUBG और Free Fire ने हथिया ली है।
माता-पिता बचपन के गुनहगार
माता-पिता भी इस बदलते बचपन के गुनहगार हैं। बच्चों को मोबाइल पकड़ा देने का मतलब उनकी जिम्मेदारी से पल भर का छुटकारा। "बच्चा शांत बैठा है, स्क्रीन देख रहा है," यह सोचकर माता-पिता खुद भी अपनी स्क्रीन में व्यस्त हो जाते हैं। पर क्या वे समझते हैं कि यह स्क्रीन उनके बच्चे के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को निगल रही है?
मानसिक थकान के शिकार बच्चे
पार्क में बैठे बच्चे आजकल न तितलियों को पकड़ने की कोशिश करते हैं, न पेड़ों पर चढ़ने का साहस दिखाते हैं। उन्हें न ओस से भीगी घास पर नंगे पांव चलने का आनंद पता है, न अपने दोस्तों के साथ ठहाके लगाने का मज़ा। खेल-कूद जो कभी बचपन का अभिन्न हिस्सा था, अब उनके जीवन से गायब होता जा रहा है।
यह स्थिति केवल शारीरिक आलस्य ही नहीं, मानसिक थकान भी ला रही है। मोबाइल की चमकदार स्क्रीन बच्चों की आंखों और दिमाग पर असर डाल रही है। एक समय था जब बच्चे कहानियों से प्रेरणा लेते थे; आज वे मोबाइल से उपजी हिंसा और आभासी दुनिया के प्रभाव में जी रहे हैं।
इन्हें रोकने की हिम्मत किसी में नहीं
मोबाइल गेम सें बच्चो में आई निडरता को रोकने की हिम्मत कई नहीं करता। यदि किसी ने उन्हें समझाने का प्रयास किया तो उसे ही मुंह की खानी पड़ती है। जवाब मिलता है "तू अपना कम कर", "बाहर मिल तुझे देखता हूं"।
समाज का नुकसान - डॉ. डबली
यह बदलाव केवल बच्चों का नहीं, समाज का भी नुकसान है। यदि हम इस मोबाइल-निर्भर बचपन को रोकने के लिए कदम नहीं उठाएंगे, तो आने वाला समय बगीचों की इस खामोशी को स्थायी बना देगा। हमें अपने बच्चों को फिर से हरी घास, खुले आसमान, और दोस्तों की हंसी के पास ले जाना होगा। बचपन को बचाइए, क्योंकि बचपन सिर्फ उम्र नहीं, एक जीवनशैली है। इसे बचाने का आवाहन सामाजिक कार्यकर्ता व नियोग थेरेपिस्ट डॉ. प्रवीण डबली ने किया है।
हर बगीचों में सक्षम गार्ड की व्यवस्था होनी चाहिए। साथ ही सीसीटीवी की भी ताकि बच्चों निगरानी का डर बना रहे, ताकि वो गलत काम न कर सके।
- डॉ. प्रवीण डबली
वरिष्ठ पत्रकार, योग थेरेपिस्ट , सामाजिक कार्यकर्ता
नागपुर, महाराष्ट्र