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क्यों दौड़ रहे हैं हम 100 प्रतिशत अंकों के पीछे?


सोचने पर मजबूर करने वाला सवाल!

हर साल बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम आते ही अख़बारों की सुर्खियाँ बनती हैं - 'हमारे स्कूल का 100% रिजल्ट'! या '90% से अधिक अंक पाने वाले छात्रों की भरमार'। यह जैसे एक राष्ट्रीय जुनून बन गया है। स्कूल अपने टॉपर्स को ट्रॉफियों की तरह दिखाते हैं, और माता- पिता गर्व से मुस्कराते हैं, मानो सफलता का पैमाना सिर्फ अंकपत्र पर छपे अंकों से ही तय होता हो। लेकिन इस अंकों की दौड़ में एक अहम सवाल पीछे छूट जाता है - क्या हम अपने बच्चों को वास्तव में शिक्षित कर रहे हैं, या सिर्फ उन्हें नंबर लाने की मशीन बना रहे हैं?

आज देशभर के स्कूल और माता-पिता का मुख्य उद्देश्य बस एक हो गया है - 10वीं और 12वीं में ज़्यादा से ज़्यादा अंक लाना। लेकिन यह अंधी दौड़ अकसर वास्तविक ज्ञान की कीमत पर होती है। बच्चों को रटने, कोचिंग क्लासेस और लगातार टेस्ट सीरीज़ में झोंक दिया जाता है। नतीजा? कोई बच्चा गणित में 95 अंक लाता है, लेकिन दुकान पर सामान का हिसाब नहीं कर सकता। कोई अंग्रेज़ी में टॉपर होता है, लेकिन दो पंक्तियाँ ठीक से पढ़ या बोल नहीं पाता।

तो फिर सवाल उठता है - क्या शिक्षा का उद्देश्य केवल अंक लाना है? क्या हम सोचने वाले, समस्याओं को हल करने वाले, और संवेदनशील नागरिक तैयार कर रहे हैं? या सिर्फ अंक गिनने वाले रोबोट?
ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ छात्रों ने किसी विषय में बहुत अच्छे अंक प्राप्त किए, लेकिन कुछ ही समय बाद उन्हें अध्यायों के नाम तक याद नहीं रहते। सिद्धांतों को समझना तो दूर की बात है। 

क्या इसे हम सफलता कहेंगे?
तो फिर दोष किसका है? स्कूलों का, जो शिक्षकों पर 100% रिजल्ट का दबाव डालते हैं? माता- पिता का, जो अंकों को ही भविष्य की गारंटी मानते हैं? या छात्रों का, जो नकल और गलत तरीकों का सहारा लेते हैं क्योंकि उन्हें सिखाया गया है कि अंक सबसे ज़्यादा मायने रखते हैं?

कुछ मामलों में छात्र परीक्षा में नकल करते हैं - न कि इसलिए कि वे अयोग्य हैं, बल्कि इसलिए क्योंकि सिस्टम ने उन्हें यही रास्ता दिखाया है। यह संस्कृति न तो रचनात्मकता को बढ़ावा देती है, न जिज्ञासा को, और न ही आलोचनात्मक सोच को। यह बस रटना और शॉर्टकट्स अपनाना सिखाती है।

अब कल्पना कीजिए एक ऐसे स्कूल की जो 100% रिजल्ट का पीछा नहीं करता, बल्कि इस पर ध्यान देता है कि छात्र वाकई में समझते क्या हैं। जो यह देखता है कि क्या बच्चा पढ़ सकता है, समझ सकता है, और जीवन की बुनियादी समस्याएँ हल कर सकता है। क्या ऐसे स्कूल की सराहना होगी? या लोग उसे कमजोर मानकर किनारे कर देंगे?

जब तक हम मूल्य बदलेंगे नहीं, शिक्षा व्यवस्था ऐसे ही लचर बनी रहेगी। अंक ही बुद्धिमत्ता या सफलता का पैमाना नहीं हो सकते। स्कूलों को यह कहने में गर्व होना चाहिए - 'हमारे छात्र समझते हैं जो वे पढ़ते हैं', न कि सिर्फ 'हमारे छात्र 90%+ लाए हैं'।

अब समय आ गया है कि हम इस दौड़ की दिशा बदलें। अंकों के पीछे नहीं, संभावनाओं के पीछे दौड़ें। बच्चों से पूछें - 'तुमने क्या सीखा'? न कि सिर्फ 'तुम्हारे कितने प्रतिशत आए'?
क्योंकि असली परीक्षा ज़िंदगी की होती है, जहाँ अंक नहीं, बल्कि समझ, व्यवहारिकता, मूल्यों और कौशल की ज़रूरत होती है।

हम सभी - शिक्षक, माता-पिता और समाज - इस बदलाव के जिम्मेदार हैं। यही बदलाव हमारे बच्चों का, और हमारे देश का भविष्य तय करेगा।

- प्रणोति बागड़े
   नागपुर, महाराष्ट्र 
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