जनता जनार्दन..
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वर्तमान समय ‘मिनटों’ के महत्व का है। दो मिनट में बनने वाली मैगी ने जो लोकप्रियता हासिल की उसे मिनटों के अंतराल से पीछे छोड़ दिया सोशल मीडिया की रील्स और स्टोरी ने। दो मिनट से भी कम समय में बनने वाली रील्स भी जब मनोरंजन का जुगाड़ करने लगी तब इंस्टंट के पावर का अंदाजा लगाना कठिन काम तो रहा नहीं। मिनटों के इस रोमांच को निर्माण करने में रोटी पर लगी घी का काम पूरी तरह से सोशल मीडिया ने किया। इनसे ज्यादा जुग जुग जीओ वाला आशीर्वाद तो लोकप्रियता के हिस्से आया है। यहाँ सब इंस्टेंट है। इधर किया पोस्ट उधर आया लाइक और बन गए आप विचारक, लेखक, लोकप्रिय और फिर ज्ञानी। सब कुछ एक अंगूठे की तर्ज पर।
ऐसे बौद्धिक गुत्थमगुत्था वाले समय में भी कोई व्यक्ति पैदल यात्रा करें और मात्र अपनी वाणी के ज़ोर पर घूम घूम कर जनमत संग्रह करने निकले तो ऐसे को आप या तो पुरातन कहोगे या फिक्रमंद/फ़िक्रचन्द। यूं तो यह दौर कहने सुनने की सीमा से पार पा चुका है फिर भी कोई जिद में आकर यह कहे कि - 'हमारा नेता कैसा हो..' तो ध्यान का खींचा जाना खिंचतान नहीं माना जाएगा। खासकर तब जब कुछ अलसाए से सुज्ञानधन्य लोग एक उंगली से कुछ बटने दबाकर भौगोलिक संरचना बदलने का साहस बैठे बैठे कर रहे हो।
वाकया कुछ यूं रहा कि यह सवालनुमा नारा लगाते, एक स्वर में अनेक मिलाजुला स्वर लिए कुछ चार लोगो की भीड़ मेरे सामने से गुजरी।
मैं बड़ी आतुरता से उन चार लोगों के हौसले को देख कर जवाब की प्रतीक्षा करने लगी कि कहीं से तो प्रतिउत्तर वाला स्वर सुनाई देगा कि ‘हमारा नेता..., जी के जैसा हो'। परंतु हाय री मेरी प्रतीक्षा, वह ना जाने क्यों आज के साधु के ज्ञान की तरह शरमा कर रह गई। चार लोगों की भीड़ जितने जोश में नेताजी के किसी खास तरह के होने की जिद कर रही थी प्रतिउत्तर वैसा आ नहीं रहा था। वे यशस्वी से चार लोग फिर भी चारो ओर घूम रहे थे। मुझे उनके तेजोमय चेहरों को देखकर यूं लगा मानो यही है वे जिनके कर्मों का फल आनेवाली पीढ़ी भर पेट खाएँगी और प्रभु के गुण गाएँगी।
वे सत्य को कमंडल में भर कर चल रहे थे। जब जहां जरूरत होती थोड़ा सा अपनी सुविधानुसार उड़ेल देते, छिड़क लेते या आचमन कर लेते। मेरे मन में तुरंत यह खयाल भी आए बिना रह नहीं सका कि कहीं यही तो वे चार लोग नहीं है जिनके बारे में कहा जाता है कि चार लोग क्या कहेंगे! खैर.., फिलहाल तो उन्हें उनके मनमाफिक जवाब मिल नहीं रहा था। उनके कहे पर कुछ कहता हुआ जब कोई नजर नहीं आया तो मैं ही आगे हो ली।
मुझे आगे होता देख वे पीछे पड़ गए और मुझसे सवाल करते हुए बोले - आप भी बताइए कि आखिर कैसा हो हमारा नेता?
उनका ‘भी’ वाला संबोधन मुझे थोड़ा अटपटा लगा। ऐसा लगा जैसे वे दर्जन भर सहमति घर से ही लेकर चले है। वह तो भला हो सर्वे प्रधान संस्कृति का जिसने ‘भी’ की लाज रख ली और मैं संकोच के बाजार से खाली हाथ लौट आई। वैसे समझदारी का समीकरण यह कहता तो है कि जब कोई आपको सुनना नहीं चाहता तो बोलना नहीं चिल्लाना छोड़ो। ये तेजस्वी ऐसे थे की चिल्ला ही इसलिए रहे थे कि बोलने को कुछ था ही नहीं। मैंने कहा- नेता कैसा हो यह सवाल अब जनता के लिए तो रहा नहीं। हाँ, जनता कैसी हो यह जरूर देखने सुनने वाली बात हो सकती है।
मेरी यह बात चारों तेजस्वियों को थोड़ी नागवार गुजरी। वे अपने बातों के पुल पर अपने नेता की तस्वीर टांगना चाहते थे। उन्हे विश्वास था की नेताजी कहीं और से दिखे ना दिखे बातों के पुल पर से जरूर दिखाई देंगे।
एक तेजस्वी थोड़ा खिले स्वर में बोला- जनता कौन होती है बहन जी अपने लिए कुछ सोच विचार करने वाली, हमारे लिए सोचने का सारा ठेका नेताजी ने ले रखा है। वह भी बड़ी ज़िम्मेदारी से।
अपने सम्बोधन में बहन कहकर जो स्वर को आवेग दिया उन महोदय ने कि लगा बस यही वह क्रान्ति का पल है जहां से संस्कृति का पांचवा अध्याय लिखने की जरूरत आन पड़ी है। यह एक मसाला होता किन्तु मेरा ध्यान अभी लेखन से अधिक चिंतन पर था। पहले लोग चिंतन करते थे तब कहीं लेखन हो पाता था। समय बदला और अब लेखन होता है फिर चिंतन किया जाता है। नेता जी के तेजस्वी ने जो ठेका विवरण किया वह अद्भुत था। हमें इस समय ऐसे ही तो नागरिक चाहिए जो इतने जिम्मेदार बनें की सोचने के दायित्व से ही मुक्त हो जाए। सोच से मुक्त आदमी तो स्वर्ग का हकदार होता है।
आखिर यह सोच ही तो है जो मुक्ति के द्वार पर किसी प्रायवेट बैंक के वसूली पथक की तरह खड़ी रहती है। मनुष्य का जी कितना भी करें लेकिन उनसे चाह कर भी मुक्त नहीं हुआ जा सकता। समय ने लेकिन कुछ बिरले ऐसे क्रिएट किए जो वीरतापूर्वक सोच विचार की प्रक्रिया से लड़कर मुक्त हो चुके हैं।
मैं क्या करती? मैं तो मुक्त नहीं थी सो कहना पड़ा- समाज अगर सोच की ज़िम्मेदारी नहीं लेगा तो नागरिकत्व को मोच आते कितनी देर लगेगी? तेजस्वी जी, भला जनता को सोचने क्यों ना दिया जाए? सोच विचार कर ही तो परिस्थिति की समझ तैयार होती है। दिमाग को खुराक मिलती है, मन मजबूत होता है, निर्णय पक्का होता है,आपसी संबंध सुधरते है,मित्रता बढ़ती है। कितने तो फायदे है सोचने विचारने के। भला ऐसी भली चीज से क्यों मुंह फेरा जाए?
मेरी बातों का असर उन बेधार वीरों पर वैसा ही हुआ जैसा जले पर नमक का होता है। इस बार दो नंबर वाले वक्ता बोले-
देखिए, दिमागी खुराक को हम खुराफात समझते है, इससे मनुष्य निकम्मा हो जाता है। किताबों की घिसी पिटी बातों को सच मान लिया जाए तो झूठ की कीमत शून्य हो जाती है।लिखी लिखाई बातों को पढ़कर के ही तो निष्क्रियता का संतुलन असंतुलित हो जाता है। सच तो सगा बेटा है। लड़ाई तो झूठ के लिए लड़नी पड़ती है'।
यह सुनकर मुझे वैसी ही अनुभूति हुई जैसे ‘गोरी वधू चाहिए वाले कॉलम में लड़के का रंग सांवला’ लिखा देखकर होती है। इन महोदय की बातों ने मेरे सारे सामाजिक नैतिक सरोकार ही ताक पर रख दिये। थोड़े बहुत धार्मिक सिद्धांत भी आँय बाँय करते नजर आए। भला झूठ के लिए लड़ना क्यों है! दोष पूरी तरह से उनका था भी नहीं। हमें संस्कृति के नाम पर दी जाने वाली घुट्टी में ‘क्या नहीं करना चाहिए’ ये इतना ज्यादा घोट कर पिलाया गया है कि ‘क्या करना चाहिए’ यह विवेक नदी से निकला नाला मात्र बनकर रह गया। अब हम अपनी पवित्रता संभाले या दूसरे के अपराध!
मैंने फिर कहा- आप नेता में गुण तलाश रहे हो जबकी नेता तो जनता पर निर्भर करता है।
इस समय ‘सोच’ के प्रश्न के सामने वे चार थे और मैं लाचार। उन्हें नेता का जनता को बनाना पता था। जनता का नेता बनाना नहीं। जैसा की चलन है उन्होने उस बात को मानने से इंकार कर दिया जो उनके लिए नई [नहीं] थी।
मुझे तो सोच की पड़ी थी। मैं ही कहने लगी। आप गुलाबजल से गुलाब बनाना चाह रहे हैं। जरूरत जनता की नहीं होती। जनता तो खुद जरूरत है। आप अपने नारे में सुधार करिए और कहिए कि- हमारी जनता कैसी हो...।
इतने साहस वाले दुस्साहस के बाद मेरा हश्र वही हुआ जो हर सुझावचंद के चंद सुझावों का होता है। मुझे यकीन होते देर नहीं लगी कि चलन व्यापक का नहीं है, व्याप्त का है। आपको यकीन ना हो तो आस पास नजर घुमाइए। विचार से ज्यादा अंक अचार को ना मिले तो बोलिए। बेचारा आचरण अपने मुंह ताकने की शताब्दी मना रहा होगा कहीं। मैंने उन चारों का ध्यान फिर सोच पर केन्द्रित किया और चाहा की ये नाराधारी नारे की दुधारी तलवार चलाने से पहले चाकचौबंद व्यवस्था तो करें। वे भी कम अनोखे नहीं थे। वे आज में जीना चाहते थे। गर्व पूर्वक बोले- जनता को जानो इससे तो अच्छा है नेता की मानो।
अब जो खुद ही ठान के बैठा हो उससे ठान कर क्या होगा यह मैंने ठाना और माना की अभी भी इस सोच की लोच नहीं बन पाई की नेता कैसा हो जरूरी नहीं। जनता कैसी हो यह भी जरूरी है। मैं सोचने लगी वह कौनसा काल था और किस सनक में जनता को जनार्दन कहा गया!
- आभा सिंह
नागपुर, महाराष्ट्र