रूबी दास द्वारा आयोजित खूबसूरत खुशरंग हसीन सफर भरी पिकनिक
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ये पर्वतों के दायरे, ये शाम का धुआँ
नागपुर। साहिर लुधियानवी के इस गीत में रंग भरती हुई धड़कनों का सफर। लफ़्ज़ों की नूरानी दास्तां। महीन एहसासों की कारीगरी। ठाकुरबाड़ी तक के हसीन लम्हों की आखर आखर उतरती हुई कहानी।
ठाकुरबाड़ी यानी एग्रो टूरिज़्म को बढ़ावा देने वाला सुहाना उपक्रम। सागौन, पलाश, नीम ,बाँस, करंज आदि के पेड़ों से सिंगार करती वनखंडी,हरित तरु पाँतों का लिबास पहने लंबी पर्वत श्रृंखला, स्याह चट्टानों को भिगोती, कलकल की धुन उठाती हुई बोर नदी, तन्वंगी पगडंडियाँ, सर्पिल सड़क के दोनों ओर लैंटाना और आदमकद घास, इक्के दुक्के राहगीर, गाय बकरियों के झुंड,और शहर के जानलेवा शोर से होड़ लेता आदिम सन्नाटा। सुरीली खामोशियों ने स्वागत में बांहें पसार दीं।दिल की बातें दिल ही जाने।हस्तिकर्ण सागौन के, साल जैसे ऊँचे ऊँचे पेड़ आकाश छूने को बेताब।बाँहों के झुरमुट से निकलती बाँसुरी की धुन।
बिजूके।अपने इलाके में मानवजाति का अतिक्रमण देख चिढ़ी हुई बतखें, झुंड में क्वैक क्वैक करती हुई इधर से उधर होती रहीं। एक अंतरंगी कविता जन्मी वहां के माहौल को देखकर- ‘कुत्ता सोया राख में तिनका गिरा आँख में चिट्ठी आई डाक में, मस्तीखोर बतख देखो, जाने किसकी ताक में, क्वैक क्वैक करते करते, दम कर दिया नाक में’।
गन्तव्य स्थल चतुर्दिक वृक्षों से घिरा हुआ।पेड़ों तले झूले। ट्रैक्टर की सवारी। बिजूके संग तस्वीरें। वारली पेंटिंग।रस्सी की खटिया ग्राम्यांचल को साकार करती हुई। हवा सेमर के कपास सी महीन।ढलान पर बोर नदी का कलनाद लगा कि किसी ने हौले से मोरपंख छुआ दिया।नवंबर की कुनकुनी धूप, निरभ्र नीलाकाश, मन की तलहटी में गहरे उतरता मौन, ऐसे में पंछियों का सिर पर से कलरव करते हुये गुजर जाना, विराट सत्ता से साक्षात्कार करते हुये कुछ पल।
पिकनिक में खाने की अपनी अस्मिता है। आर्गेनिक पदार्थों से बना हुआ नाश्ता,सुरुचिपूर्ण भोजन और गुड़ की जलेबी (जो आज तक मुहावरों में सिमटी रही,) खाने का आनंद उठाया। सफर में धूप ही नहीं छांह भी थी। ग्राम्य जीवन की कुछ झलकियाँ मन में बिंबित हो गईं।इकलौती छरहरी सड़क पर काढ़ी गई रंगोलियां।दोनों ओर खूँटे से बँधी गाय बकरियाँ। हैरानी तो तब हुई जब एक स्त्री को अपने पल्लू से बाँधकर कुत्ते को ले जाते हुये देखा।दोनों साथ साथ चल रहे थे। मौन के पाँव थके तो शुरू हुये सखियों के जोक्स, गीत और यादों के सिलसिले।
पर्वतों की तलहटी में पसरा नीला कोहरा थुआँ धुआँ। कुदरत किस हद तक नशीली हो सकती है ये जाना हमने।लगा कि उसे छू लें।गीतों की अंजुरी में समेट लें।
वापसी में सुर्ख सिन्दूरी सूरज साथ साथ चला, पेड़ों के पीछे से लुका छिपी करता हुआ।ठंड ने डेरा डालना शुरु कर दिया।गोधूलि लौटने लगी।
विशाल झिलपी लेक और आसमान। दूर तक फैली हुई स्याह उदासियां। अजीब सा मंज़र।तीसरा कोई नहीं।महाजलप्लावन का चित्र सामने हो जैसे।
एक छोटे से हिस्से में स्ट्रीट लैंप की रूपहली रोशनी, पर्वतों की धारा और तरुपाँतों की छाँह झील में उतरी हुई।समक्ष गणेश मंदिर की संरचना, स्वच्छता एवं कारीगरी मन मोह गई।
जिन्दगी के कितने ही मानी बता गई संधि बेला। रंगों की तिजोरी, रूप का ऐश्वर्य अंधेरे में खो जाता है।अहं को निश्शेष करता हुआ।अस्तित्व उजालों से है।उजालों के लिये।
इस खूबसूरत खुशरंग हसीन सफर की रचनाकार थीं सखी रूबी दास। सखियां सर्व श्रीमती इन्दिरा किसलय, धृति बेडेकर, माधुरी राऊलकर, पुष्पा पांडे, सुनीता पुरी, हेमलता मानवी, देवयानी बैनर्जी, पुष्पा भाभी, मंजू मुखर्जी, बोनोश्री नायर, अरुणा चटर्जी, टिंकू घोष, कमल कन्नौजिया, मीरा जोगलेकर एवं माधुरी यादव का आत्मीय सहयोग जैसे मन में स्नेह का शिलालेख बन गया।


