मन दर्शन
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बहुत दिनों से मन में इच्छा थी कि दक्षिण भारत के एक प्रसिद्ध मंदिर में देव दर्शन कर आऊँ। महीनों बीत गए, महीनों से बरस लेकिन कोई न कोई कारण से यह सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ । फिर एक बार ज़िद कर निकल ही पड़े। एक ही मकसद - मंदिर जाना है। देव दर्शन करना है।
सुना था कि वहाँ पर बहुत भीड़ होती है। एक व्हिआएपी दर्शन की व्यवस्था भी है। व्हीआएपी का अर्थ है ‘व्हेरी इंपारटंट परशन’ यानी अति विशिष्ट व्यक्ति। ऐसे व्यक्ति बाक़ी लंबी क़तारों के सामान्य जनों को लाँघकर पहले दर्शन कर लेते हैं। अति विशिष्ट व्यक्ति का केवल एक ही मापदंड है , वह है जेब में अधिक पैसे का होना। आप पैसे दें और जल्द दर्शन का लाभ उठाएं। और यह लाभ आपकी जेब के मुताबिक़ विशिष्ट, अति-विशिष्ट और अति -अति -विशिष्ट के रुप में होगा। मन ही मन सोचा कि ईश दर्शन के लिए यह कैसी व्यवस्था! ईश्वर के लिए भला कोई कैसे विशिष्ट हो सकता है!
सुबह सुबह स्नान कर मंदिर के अहाते पहुँचा। भक्तों की बहुत भीड़ थी। कोई छः घंटे क़तार में खड़ा रहना पड़ा ।क़तार में दुध पीते बच्चों से लेकर बूढ़े तक थे। कुछ भक्तगण चल नहीं पा रहे थे। कमर झुकी हुई, लाठी के सहारे चल रहे थे।
एक युवक ने मुझे बहुत प्रभावित किया। वह अपने बुजुर्ग माता-पिता को लेकर आया था। उसमें पिता अंधे थे, माता की कमर झुकी हुई, घुटनों के दर्द से पीड़ित। लेकिन दिल में जज़्बा कि ईश्वर के दर्शन करेंगे। मुझे उत्सुकता हुई। दर्शन करेंगे कैसे, इनकी तो नज़र ही नहीं है। मैंने उस वृद्ध पिता से पूछ ही लिया, ‘आपको तो दिखाई नहीं देता। आप ईश्वर दर्शन करेंगे कैसे’? उनके जवाब ने मुझे जड़ से हिला दिया।
‘परभु का दरसन करने आँखों का क्या प्रयोजन’?
मैं सोचने लगा कि अगर ऐसा ही है तो मंदिर क्यों आना? घर पर रहकर मानस चक्षु से प्रभु दर्शन कर लेते! लेकिन बात विश्वास की है। विश्वास के समक्ष तर्क नहीं टिकते। और किसी के विश्वास से कैसा वाद , कैसा विवाद!
बहुत ही धीमी गति से कछुए की भांति हम आगे बढ़ रहे थे। लोग बीच बीच में ‘गोविन्दा - गोविंदा’ कहकर पुकार रहे थे। दिवार पर प्रभु के जीवन दर्शन पर चित्र बने हुए थे। फिर हम देवता के गर्भ गृह तक पहुँचे।
आज जी भर कर देव को देखुंगा। सालों से मन की यह आशा अब सफल होगी। इतनी भीषण भीड़ में कोलाहल के बीच मैं आगे बढ़ने लगा। आगे बढ़ना क्या, भीड़ ही मुझे अनायास आगे ले जा रही थी।
हे भगवान, हे प्रभु, कितने दिनों के प्रतीक्षा के पश्चात दर्शन दे रहे हो। इस बीच समय के थपेड़ों से चाहकर भी मैं तुमसे मिलने आ नहीं पाया। दुनियादारी निभाने में व्यस्त रहा। आख़िरकार वह पल आ ही गया।
हे प्रभु, मेरे अवगुण क्षमा कर दो। सुना है, तुम बहुत क्षमाशील हो, सब कुछ जानते हो, जो बातें कही जाती हैं वह और जो मन में रहती हैं वह भी। तुमसे क्या छिपा रहेगा हे प्रभु। हे किसन, हे दीनदयालु, हे दिनबंधु, हे राम मेरे, मुझे राह दिखाओ हे प्रभु। मन में, हृदय में समाओ, हे हृदय के स्वामी। मेरे नयन भर आए।
मेरे होशो हवास मानों गुम हो गए। नयन बंद कर प्रभु के गीत गाने लगा। शरीर का कोई भान नहीं। शरीर भीड़ में यंत्रवत आगे बढ़ रहा था। धीरे-धीरे मैं अपने अस्तित्व को खो चुका, मैं कौन, कहाँ, किसलिए, सब मानों विलीन हो गए । कोई चिंता नहीं, कोई आकांक्षा नहीं, न पाने की ललक, न खोने का डर, भुख, प्यास सब तिरोहित हो गये। मैं मानों अपने ही बहुत क़रीब आ गया, मैं अपने आप से अपरिचित सा था, लगा कि मैं इतने बरसों से अँधेरी गलियों में भटक रहा था। आज मुझे प्रकाश के दरसन मिले। मेरी आँखों से आँसू झरने की तरह बह रहे थे। अचानक मुझे भान हुआ कि मैं मंदिर से बाहर आ चुका हूँ। अरे, यह क्या, मैं मंदिर गया जरुर लेकिन भगवान को तो मैंने देखा ही नहीं!
मुझे उस वृद्ध की बात याद आई, उन्होंने कहा था, ‘परभु का दरसन करने आँखों का क्या प्रयोजन’।
- डॉ शिवनारायण आचार्य
नागपुर, महाराष्ट्र