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पाश्चात्य शिक्षा, सभ्यता व सनातन संस्कृति का समन्वय घर से ही संभव है : श्रीमती संध्या दुबे


नागपुर। विदर्भ हिंदी साहित्य सम्मेलन में ‘चौपाल’ उपक्रम के अंतर्गत ‘पाश्चात्य शिक्षा, सभ्यता व सनातन संस्कृति में समन्वय कैसे हो’ इस शीर्षक पर परिचर्चा का आयोजन, हिंदी मोर भवन, सीताबर्डी, नागपुर में संयोजक श्री विजय तिवारी तथा सहसंयोजक हेमंत कुमार पांडे इनके नेतृत्व में किया गया। इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि श्रीमती मीनाक्षी राजेंद्र सायरे, सहायक अधीक्षक अभियंता, सिंचाई विभाग, नागपुर, विशेष अतिथि श्रीमती संध्या ऋषिकुमार दुबे, वाइस प्रिंसिपल, संत मैरी स्कूल, अय्यपा नगर, नागपुर, उपस्थित थे।

एड. जगत बाजपेई ने सनातन संस्कृति की महानता बताते हुए  उसका किस प्रकार से भारत देश में आक्रांताओ द्वारा  विनाश किया गया व उसका परिणाम हमारी संस्कृत, शिक्षा, जीवन पद्धति, पूजा पद्धति, प्रकृति से सानिध्य, मौसम विज्ञान, सामान्य विज्ञान, आहार शास्त्र, कृषि व औषधी शास्त्र श्रृंगार शास्त्र, नृत्य व संगीत, वेद, अर्थशास्त्र, तंत्र शास्त्र, औषधी शास्त्र, राजनीति शास्त्र, समाज शास्त्र, इस प्रकार अनेक क्षेत्र में भारत के ज्ञान के अपार भंडार, शिक्षा के केंद्र, विश्वविद्यालय, गुरुकुल पद्धति व जनजीवन में को नष्ट किया गया व पाश्चात्य शिक्षा समाज में थोपी गई तथा आज उसका व्यापक रूप बताते हुए भारत देश की आर्थिक, सामाजिक, सामरिक, तंत्र विज्ञान के क्षेत्र में हुए विकास की तुलना अन्य देशों से करते हुए विस्तार से बताया। उन्होंने पश्चात शिक्षा, सभ्यता व सनातन संस्कृति में समन्वय कैसे हो इसकी संभावना के अनेक उदाहरण व सुझाव दिए।

लक्ष्मीनारायण केसकर ने कहा की आज की परिस्थिति में भारतीय अर्थव्यवस्था को देखते हुए, अस्तित्व की स्पर्धा में पाश्चात्य शिक्षा अत्यंत अनिवार्य है, परंतु सनातन संस्कृति को अपनाते हुए जीवन यापन करना भी संभव है। इसके अनेक उदाहरण हमें आज भी समझ में देखने को मिलते हैं। उन्होंने सनातन संस्कृति का महत्व व उनकी सार्थकता को भी विस्तार से बताया।

धीरज दुबे सनातन संस्कृति को जीवित रखने के लिए आज भी धार्मिक संस्थाओं व देवस्थान द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं, इससे प्रेरणा लेकर हमें अपने परिवार में, जीवन में साथ ही दैनिक व्यवहार में अपनाना  चाहिए।

रमेश मौदेकर ने अपने जीवन काल में भारतीय संस्कृति का पालन, दैनिक जीवन में उसके फायदे  बताये तथा उन्होंने जो अनुभव किया उसके आधार पर भारतीय संस्कृति का महत्व व आज की स्थिति का चित्र प्रस्तुत किया।

श्रीमती तिलोत्तमा त्रिवेदी ने वर्तमान परिस्थिति में भारतीय संस्कृति के पालन करने में आने वाली कठिनाइयां, परिस्थिति व सामाजिक परिवेश का बहुत ही सुंदर वर्णन करते हुए उन्होंने इसकी संभावनाएं बताई तथा इसकी पहल परिवार से ही होना चाहिए इस बात पर उन्होंने जोर दिया।

श्रीमती रानी त्रिवेदी ने बताया की वह किस प्रकार से अपने परिवार में, मित्रों में, रिश्तेदारों में दैनिक व्यवहार में किस प्रकार से व कैसे अपने परंपरा व संस्कृति का पालन करती है, इसका उन्होंने बहुत ही सुंदर वर्णन किया।

विशेष अतिथि श्रीमती संध्या ऋषि कुमार दुबे, ने अपने शैक्षणिक जीवन में आए अनुभव व भारतीय संस्कृति की महिमा बताते हुए उनका पालन किस प्रकार से करना चाहिए, बताया। उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज और जीजाबाई, ऐसे अनेक उदाहरण दिए। उन्होंने कहा की सनातन संस्कृति का पालन प्रत्येक माता यदि घर से ही शुरू करें तो या संभव है, और हम आजीवन इसका पालन कर सकते हैं।

मुख्य अतिथि श्रीमती मीनाक्षी राजेंद्र सायरे ने भी कहा की, आधुनिक शिक्षा पद्धति और  आधुनिक जीवन शैली में भी सनातन संस्कृति के पालन की अनेक संभावनाएं है। इसके उन्होंने अपने जीवन के अनेक अनुभव उदाहरण प्रस्तुत किये। कार्यक्रम का संचालन सहसंयोजक हेमंत कुमार पांडे ने बहुत ही बेहतरीन तरीके से किया। 

कार्यक्रम के अंत डॉ. कृष्ण कुमार द्विवेदी मैं अपने विचार व्यक्त करते हुए सभी अतिथियों का, आयोजकों का व श्रोताओं का आभार  के प्रति आभार किया।

कार्यक्रम को सफल बनाने में सर्व श्रीमती माया शर्मा, रानी त्रिवेदी, तिलोत्तमा त्रिवेदी, कुमारी निधि तिवारी, कुमारी जया धोके, सर्वश्री डॉ. सौरभ शुक्ला, अम्बरीष दुबे, पद्मदेव दुबे, एडविकेट जगत बाजपेई, राजेश अग्रवाल, ए जी मुले, लक्ष्मीनारायण केसकर, रमेश मौदेकर, मुकुंद द्विवेदी, प्रवीण तिवारी, धीरज दुबे, वैभव शर्मा, नरेंद्र सिंह, डी के राव, डी पी भावे, डॉ. प्रकाश उईके, नरेंद्र ढोले, राजेंद्र सायरे, इन्होंने अपना अमूल्य योगदान दिया।
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