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मिल जाएगा उपचार...

बनकर काल 
कोरोना बून रहा है जाल।

मकड़ी की भाँति,
फँसाने को मानव जाति।

पसार रहा है अपने पाँव,
शहर हो या गाँव।

रुक गया है बाहर का आना - जाना,
सबका नसीब बन गया है कैदख़ाना।

मस्तिष्क में घूम रहा है एक ही सवाल,
कैसी आपदा लेकर आया है यह साल ?

अपने अनगिनत ख़्वाबों के साथ,
उगाकर कई - कई हाथ,

जिन पर बड़े गर्व और गति से बढ़ रहा था इंसान,
वो सड़कें हो गई हैं विरान।

सभी हैं दंग,
कि एक सूक्ष्म जीव ने कर दिया सब कुछ बदरंग।

नुरानी रंगत को निगल गई ख़िज़ाँ 
बेचैन है फ़िज़ा।

लेकिन सारी दुश्वारियों के बावजूद,
मनुष्य ने सदियों से बचाए रखा अपना वजूद।

उसके एक इसी गुण से सारी विपदाएँ गईं हार,
कि उसने किसी भी परिस्थिति में नहीं डाले हथियार।

वह बेचैन तो है लेकिन ठान ली है ज़िद,
विजेता बनके दिखाएगा, है उम्मीद,
वह खा रहा है क़सम,
कि बदल देगा आलम।

बड़े मनोयोग से ढूँढा जा रहा है उपाय,
ली जा रही हैं मंत्रणा, रखी जा रही है राय।

नए जोश - जज़्बे और विश्वास से भर उठा है संसार,
कि जल्दी ही मिल जाएगा इस महामारी का उपचार।

- डॉ. प्रमिला शर्मा
मुंबई, महाराष्ट्र
काव्य 3663062637558749956
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