साहित्य का मानदंड है समाज : प्रो. अरुण होता
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नागपुर। साहित्य समाज की चित्तवृत्ति का प्रकाशन होता है। समाज की प्रवृत्ति के अनुरुप न सिर्फ साहित्य का सृजन होता है बल्कि उसका मूल्यांकन भी होता है। अगर रचनाकार अपने समय की सामाजिक चिंताओं को वाणी देता है तो आलोचक उसकी महत्ता को रेखांकित करता है। यही दोनों का युग-धर्म है। यह बात प्रख्यात आलोचक प्रो. अरुण होता, कोलकाता ने हिन्दी विभाग राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज नागपुर विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित विशिष्ट व्याख्यान में कही।
व्याख्यान का विषय था - 'हिन्दी आलोचना-दृष्टि और प्रवृत्तियां'। उन्होंने कहा कि जो रचना-आलोचना अपने समय की अनुगूंज को नहीं पकड़ पाती, वह जड़ हो जाती है, उसकी सामाजिक प्रासंगिकता समाप्त हो जाती है। आलोचना का कार्य साहित्य-विवेक ही नहीं, सामाजिक-विवेक भी जागृत करना होता है।
अतिथि वक्ता श्री वेंकटेश्वर विश्वविद्यालय तिरुपति के प्रो. रामप्रकाश ने साहित्यिक चेतना के आधार पर आलोचनात्मक प्रवृत्तियों को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि आलोचना समाज, संस्कृति और साहित्य की मूल्यवत्ता प्रस्तुत करती है।
रचना समय का साक्ष्य प्रस्तुत करती है तो आलोचना उसकी व्याख्या प्रस्तुत करती है। इसीलिए हर युग की रचना की यह मांग रही है कि उसका समर्थ आलोचक के हाथों मूल्यांकन हो। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि साहित्य की प्रवृत्तियों को समय - संदर्भ की सापेक्षता में देखा जाना चाहिए।
स्वागत उद्बोधन देते हुए हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. मनोज पाण्डेय ने कहा कि आलोचना, साहित्य की भूमिका का विस्तार करती है। रचना के प्रमेय की पुनर्व्याख्या करती है। साहित्य की सामाजिक भूमिका का आकलन मानवीय मूल्यों के संवर्धन में सहायक होता है।
इस अवसर व्यापक चर्चा - परिचर्चा भी हुई। आभार प्रदर्शन डॉ. संतोष गिरहे ने तथा संचालन डॉ सुमित सिंह ने किया।
