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सिंधी लोक कला भगत को घर घर पहुंचाया अमर शहीद संत कंवरराम ने


1 नवंबर पुण्यतिथि पर विशेष

नागपुर। भगत सिंधी संगीत का एक प्रकार है। सत्संग, सुर की महफिल, ईश वंदना, रूह की राहत और सुर ताल में नृत्य का इसमें समावेश रहता है। भगत सामान्यतः रात्रि के समय हुआ करती है ताकि लोग अपनी दिनचर्या व काम काज से निपट कर एकाग्रचित होकर इसका रसास्वाद कर सके। यह सिंधी समाज की प्रमुख लोक कला है। इस भगत कला को पेश करने वाले को भगत कहा जाता है। आज भी हिंदुस्तान में कई भगत इस लोककला को जीवित रखे हुए हैं। 

सिंधु में हर खुशी के मौके पर भगत का आयोजन हुआ करता था। महापुरूषों की जयंतियों एवं पुण्यतिथियों पर भगत का होना आम बात थी। अमर शहीअ संत कंवरराम ने भगत कला को घर घर पहुंचाकर पेरे सिंधु में एकता का संदेश दिया। इसीलिए उन्हें भगतों का सरताज कहा जाता है। भगतों के सरताज भगत कंवरराम भगतों के सरताज अमर शहीद संत कंवरराम का जन्म सिंध प्रांत के घोटकी जिले के तालुका मीरपुर माथेलो के एक छोटे से गांव जरवार में भाई ताराचंद के घर 13 अप्रेल 1885 को हुआ था। उनकी माता का नाम तीर्थबाई था। उन दिनों रहड़की साहिब के समर्थ गुरू सिंध के शिरोमणि संत खोताराम जरवार में परचून की दुकान चलाते थे। 

वे महान सिद्वपुरूष और भगत थे। अपने प्रवचनों एवं भजनों से उन्हें जो पैसा प्राप्त होता वो वहीं ज़रूरतमंदों तथा ग़रीबों में बांट देते थे। उदरपूर्ति के लिए वे अपना व्यवसाय करने जरवार आया करते थे। जरवार में भी फुरसत के क्षणों में रोज़ सत्संग किया करते थे। दूर दूर से लोग उनके प्रवचनों को सुनने आते थे। 

संत कंवरराम के पिता ताराचंद व माता तीरथबाई को कोई संतान नहीं हो रही थी। माता तीरथबाई संत खोताराम की दरबार में प्रातःकाल ब्रम्ह महूर्त में प्रतिदिन पानी भरकर सेवा करती थी। एक दिन उनकी सेवा से प्रसन्न होकर साईं खोताराम ने माता तीरथबाई को संतान का वरदान दिया। संत के आशीर्वाद के एक वर्ष पश्चात् माता तीरथबाई को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। माता पिता बालक को संत के पास ले आए और बालक के नामकरण का निवेदन किया। संत खोताराम ने बालक का नाम कंवर (अर्थात् कमल का फूल) रखा। 

नामकरण के समय ही संत खोताराम साहिब ने भविष्यवाणी की कि जिस प्रकार कमल का फूल तालाब के पानी और कीचड़ में खिलकर दमकता रहता है वैसे ही इस जगत में कंवर भी निर्मल एवं विरक्त होगा तथा सारे विश्व को कर्तव्य पथ, कर्म, त्याग और बलिदान का मार्ग दिखाएगा। साईं खोताराम ने ताराचंद से वचन लिया कि जब बालक बड़ा हो जाएगा तो उसे रहड़की साहिब दरबार को सौंप देना। 

बाल्यावस्था में ही कंवर की रूचि ईश्वर भक्ति और भजन कीर्तन में लगने लगी। जब बालक कंवर थोड़ा बड़ा हुआ तो माता तीर्थबाई कंवर को कोहर (उबले हुए चने) तैयार कर बेचकर आने के लिए कहती थी। बालक कंवर पैरों में घुंघरू बंाधकर, सिर पर कोहर के टोकरे का बोझ सहते हुए, सुरीली आवाज़ में गीत गाता तो गांव के बच्चे-बूढ़े, मर्द और औरतें अपने अपने घरों से बाहर निकलकर बालक की सुरीली आवाज़ सुनने के लिए पहुंचते और उससे चने खरीदकर खुश होते। 

संत खोताराम की पृत्यू के पश्चात् एक बार जरवार ग्राम में उनके सुपुत्र सच्चे साईं सतरामदास का संध्या समय कीर्तन हो रहा था। उसी समय चने बेचने के लिए मधुर, सुरीली और बुलंद आवाज़ में किशोर कंवर की ध्वनि संत के कानों तक पहुंची। संत सतरामदास को सुरीली आवाज़ ने बहुत ही प्रभावित किया। उन्होंने सेवादारियों से कहकर नन्हे बालक को दरबार में अंदर बुलाया और भजन गाने के लिए कहा। कंवर मगन होकर भजन सुनाने लगा। स्वामी सतरामदास ने उनका भजन सुना। जौहरी ने हीरे की परख कर ली। कंवर के भजनों से वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उसे अपने दरबार में बुलाकर संगीत विद्या में निपुण बनाने की पेशकश कर दी। 

हयात पिताफी में शदाणी दरबार के भाई हासाराम तलरेजा गायन विद्या में प्रवीण थे। भाई ताराचंद ने कंवर को हयात् पिताफीन भेज दिया। वहीं रहकर कंवर ने भाई हासानंद से संगीत की शिक्षा भी ग्रहण की और गुरूमुखी भी सीखी। वहां से संगीत शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे रहड़की साहिब की लोक प्रसिद्व दरबार में स्वीकार कर लिए गए। बालक कंवर अब रहड़की साहिब में संगीत शिक्षा सीखने लगे। शिक्षा सीखने के समय ही अपने गुरू के साथ हर जगह भगत करने जाते और वापस आकर रहड़की दरबार में दीन दुखियों की सेवा करते थे। 

इसी तरह उनका जीवन गुरू भक्ति तथा दीन दुखियों की सेवा में व्यतीत हो रहा था। स्वामी सतरामदास के स्वभाव में छुआछूत की भावना थी ही नहीं। ऐसे पारस गुरू के सान्निध्य ने कंवर के हदय में प्रकाश भर दिया। बालक कंवर मानो उनके ज्ञान रूपी तेज में तप कर कुंदन बन गया। संत सतरामदासजी के परम् धाम सिधारने के पश्चात् उनका सारा भार संत कंवररामजी के कंधो पर आ पड़ा। सिर पर पगड़ी सजाकर, तन पर जामा पहनकर और पैरों में छेर (घुंघरू) बांधकर संत कंवरराम गांव गांव जाकर भगत करते हुए प्रभू भक्ति के साथ साथ अध्यात्मिक,नैतिक और मानवीय आदर्शों तथा सांप्रदायिक सद्भाव का प्रचार करते थे। 

संत कंवरराम की मधुर वाणी में सम्मोहन था 

संत कंवरराम की मधुर वाणी में ऐसा सम्मोहन था कि श्रोतागण अपनी सुध बुध खो बैठते थे। जिस शहर या गांव में कार्यक्रम होता था वहां दूर दूर के शहरों तथा गांवों के लोग भी उनकी भगत को देखने सुनने के लिए आते थे। भगत के दौरान जो कुछ भी उन्हे दान या भेंट स्वरूप प्राप्त होता वह सब दीन दुखियों तथा ज़रूरत मंदों की सेवा में व्यय करते थे। अपने लिए वे कुछ नहीं लेते थे। बीच बीच मे जरवार आकर पिता के काम में भी हाथ बंटाते थे। वे कबीर, मीरा, सूरदास, गुरू नानक, शेख फरीद, बुल्लेशाह, शाह अब्दुल लतीफ भिटाई, सामी, सचल सरमस्त के अतिरिक्त भारत के अनेक महान कवियों और दरवेशों के दोहों और भजनों को गाते थे। 

अपने कार्यक्रम के दौरान राजा विक्रमादित्स, राजा हरिश्चंद्र, भक्त ध्रुव और भक्त प्रल्हाद आदि की गाथाओं को अपनी मधुर और खनकती हुई आवाज़ में सुनाते थे तो ऐसा प्रतीत होता था मानो भक्ति संगीत का कोई विशाल समागम हो रहा है। उन्होंने धर्म, नस्ल और जाति के भेद भाव को कभी भी अपने निकट नहीं आने दिया। उनकी बुलंद आवाज़ अंधेरे में खामोशी को चीरती हुई मीलों तक सुनाई देती थी। त्याग व तपस्या की प्रतिमूर्ति संत कंवरराम त्याग व तपस्या की प्रतिमूर्ति, जीवन के मर्म को समझने जानने वाले, ऋषितुल्य, मानवता के मसीहा, दया के सागर, दीन दुखियों अबलाओं अनाथों व अपाहिजों के मददगार थे। 

उनकी आवाज़ में दर्द व अद्भुत कशिश थी जिसे सत्संग में सुनकर हज़ारों भक्तगण मंत्रमुग्ध हो जाते थे। संत कंवरराम साहिब के भजनों में ईश्वर और अल्लाह का समावेश था। हिंदु व मुसलमान उनके गीतों व कलामों के दीवाने थे तथा उनके सत्संग में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते थे। वे सिंध के तानसेन कहे जाते थे। अपने सत्गुरू संत शिरोमणि सतरामदास की प्रेरणा से संत कंवरराम ने जीवन पर्यंत भ्रमण कर सत्संग द्वारा सत्य, अहिंसा, विश्व बंधुत्व व सांप्रदायिक सौहार्द का संदेश जन जन तक पहुंचाया। संत कंवरराम के गीतों व कलामों में सिंध के गांव गांव में प्रज्वल्लित सांप्रदायिक सद्भाव की ज्योति कुछ नापाक विचार रखने वाले लोगों को अखरने लगी। 

वे इस ज्योति को बुझाने की पुरजोर कोशिश करने लगे। अंततः 1 नवंबर 1939 को वह काला दिन आया जो मानवता के इतिहास में अति कलंकित और दुखदायी रहा। मांझादन के दरबार में भाई गोविंदरामजी के वर्सी महोत्सव मे ंभजन के मश्चात् दादू नगर में किसी बालक के नामकरण के अवसर पर पहुंचे। भजन के पश्चात् भोजन करते समय उनके हाथ से कौर छूट गया। संत कंवरराम मन ही मन प्रभू की माया को समझते हुए उनकी कृपा का स्मरण करते रहे और उन्होंने अपने समक्ष रखी भोजन की थाली एक ओर कर दी और उठकर चल दिये। 

अपनी भजन मंडली के साथ संतजी गाड़ी बदलने की दृष्टि से रात्रि 10 बजे रूक स्टेशन पर पहुंचे। इतने में दो बंदूकधारियों ने आकर संतजी को प्रणाम किया और अपने कार्यसिद्वि के लिए उनसे दुआ मांगी। त्रिकालदर्शी संत कंवरराम साहिब ने उन्हें प्रसाद में अंगूर देते हुए कहा कि अपनी पीर मुर्शीद को याद करो। उनमें विश्वास रखो। आपका कार्य अवश्य पूरा होगा। संत जी यात्रा करते समय कभी भीे रेल में खिड़की के पास नहीं बैठते थे। उस दिन वे अचानक ही खिड़की के पास बैठ गए। 

रेलगाड़ी चलने पर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करने वाले बंदूकधारियों ने सहज और शांत भाव से बैठे संत को निशाना बनाया। संत कंवरराम जी को एक साथ सीने में तीन गोलियां लगी और उन्होंने हाथ जोड़ते हुए हे राम, हे राम कहते हुए प्राण त्यागे। आध्यात्म के ज्योति को प्रखर करने वाले युग पुरूष, सामाजिक सद्भाव के एक मजबूत स्तंभ, सिंध के महान सपूत परधाम सिधार गए। भगत कंवरराम एक ऐसे व्यक्तित्व का नाम है जिन्होंने कभी हिंदु मुस्लिम में फर्क नहीं समझा। 

दोनों मज़हबों को एकता और भाईचारे की डोर से बांधनेवाले संत को अपने इस उद्देश्य में अपने जीवन की आहूती देनी पड़ी। इसीलिए वे अमर शहीद संत कंवरराम कहलाते हैं। मानवता के लिए बलिदान हुए ऐसे महान पुरूष अमर शहीद संत कंवरराम को शत् शत् नमन।
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