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बुजुर्गों की उपेक्षा भारतीय संस्कृति के लिए घातक : डॉ प्रेमलता चुटैल


नागपुर/पुणे। स्वतंत्र जीवन जीने की चाह ने रिश्तों की गरिमा को खंडित कर लिया है। परिणामत: हमारे घर परिवारों में बुजुर्गों की उपेक्षा होने से भारतीय संस्कृति की दृष्टि से अत्यंत घातक परंपरा आरंभ हुई है। यह विचार डॉ. प्रेमलता चुटैल, प्रोफेसर, हिंदी, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन, मध्य प्रदेश ने व्यक्त किये। विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान प्रयागराज की ओर से "वर्तमान परिवेश में बुजुर्गों की दशा और दिशा" विषय पर आयोजित राष्ट्रीय आभासी गोष्ठी में वे विशिष्ट अतिथि के रूप में उद्बोधन दे रही थी।

विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष डॉ.शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे, महाराष्ट्र ने गोष्ठी की अध्यक्षता की। डॉ. चुटैल ने आगे कहा कि, हमारी वृत्ति भोग वादी नहीं, त्याग की रही है। अतः बच्चों को संस्कारित करने की आवश्यकता है। धन कमाने की होड़ पर अंकुश लगाकर बच्चों के मन में स्वदेश प्रेम की भावना जगानी चाहिए। क्योंकि वर्तमान परिवेश में काम और अर्थ केंद्र में आ जाने से व्यक्ति की भोग लिप्सा बढ़ गई है। परिवार में बुजुर्गों के प्रति उपेक्षा बढ़ने से वृद्धाश्रम की नई परंपरा तेजी से आरंभ हुई है।

मुख्य अतिथि डॉ. अंजना संधीर, रुड़की, उत्तर प्रदेश ने कहा कि भारतीय संस्कृति में बुजुर्गों की समस्याएं वास्तव में पाश्चात्य संस्कृति की देन है। हमारे वृद्धाश्रमों में निराधारों की संख्या ना के बराबर है, बल्कि  करोड़पतियों के वृद्ध बृहद संख्या में वृद्धाश्रमों में भर्ती हो रहे हैं। यह दुष्प्रवृत्ति भारतीय संस्कृति की दृष्टि से बहुत बड़ा कलंक है।
मुख्य वक्ता डॉ. मृणालिका ओझा, रायपुर, छत्तीसगढ़ ने अपने वक्तव्य में कहा कि बुजुर्गों की वर्तमान दशा में अतीत और वर्तमान का संघर्ष छिपा हुआ है। पीढ़ी संघर्ष ही पनपती वृत्ति बुजुर्गों की समस्या को वास्तव में जिम्मेदार है। वर्तमान स्थिति में देश में बुजुर्गों का प्रतिशत आठ तक पहुंच चुका है।

डॉ. सुधा सिन्हा, पटना, बिहार ने कहा कि संयुक्त परिवार के विघटन से निर्मित एकल परिवार की संस्कृति हमारे बुजुर्गों की समस्या के लिए जिम्मेदार है। वास्तव में बुजुर्ग राष्ट्र के मेरुदंड हैं। बुढ़ापा जीवन की प्राकृतिक अवस्था है।
विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के सचिव डॉ. गोकुलेश्वर द्विवेदी ने प्रस्ताविक में कहा कि हमारे समाज की विडंबना है कि बच्चे विदेश में पैसा कमा रहे हैं और माता-पिता वृद्धाश्रम में हैं। स्वतंत्र विचारों में जीने की प्रवृत्ति से बच्चे रिश्तों की गरिमा से अलिप्त हो रहे हैं।

विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान के अध्यक्ष डॉ. शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे, महाराष्ट्र ने अध्यक्षीय समापन में कहा कि, बुजुर्ग हमारे समाज की रीढ़ है। प्राचीन समय में वृद्धजनों को परिवार में उचित सम्मान प्राप्त था।  वृद्धावस्था के अभिशाप के व्यक्तिगत और सामाजिक पहलू दिखाई देते हैं। समाज की उपेक्षा से बुजुर्ग अपने को कुंठित और निराश महसूस करते हैं। अकेलेपन की समस्या भी बुजुर्गों के लिए अत्यंत गंभीर हैं।

श्रीमती भुवनेश्वरी जैसवाल,  कोरबा, छत्तीसगढ़ ने सरस्वती वंदना प्रस्तुत की। डॉ.सरस्वती वर्मा, रायपुर, छत्तीसगढ़ ने स्वागत उद्बोधन दिया। संस्थान की छत्तीसगढ़ राज्य प्रभारी व हिंदी सांसद डॉ. मुक्ता कान्हा कौशिक, रायपुर ने गोष्ठी का सफल व सुंदर संचालन किया तथा डॉ. सोनाली चेन्नावर, रायपुर,  छत्तीसगढ़ ने आभार ज्ञापन किया।

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