द्वार की स्वागत-सज्जा से पहले ही धनतेरस पर माँ लक्ष्मी का आगमन!
धनतेरस का दिन था, और दीवाली आगमन की बधाईयाँ चारों तरफ से आने लगी थी, पर बहुत से निकट सम्बन्धियों और कुछ आत्मीय मित्रों ने कोविड की दूसरी लहर के खौफनाक मंज़र में, अपने अपनों को खोया था इसलिए मन इतना उत्साहित तो नहीं था, पर कुछ अनुष्ठानों को सगुन के तौर पर करना अनिवार्य था। इस बार मैं दीवाली के दीये, उस बिटिया (लक्ष्मी) से लेने वाली थी जो पिछले साल ही अनाथाश्रम से बाहर अपने निजी व्यवस्था से रह रही है, क्योंकि अब वह बालिग़ हो गयी है। वह होटल मैनेजमेंट में ग्रेजुएट है और एक अच्छे होटल में शेफ होने के साथ-साथ बहुत उत्कृष्ट कलात्मक सजावट की चीजें भी बनाती है। अपनत्व होने के कारण उसने हमें पहले से ही बता दिया था कि, दिवाली सामग्री, हैण्डमेड सजावट की चीजें व अन्य सब सामान उसके पास उपलब्ध है, तो ज़ाहिर सी बात है मैं उसे प्राथमिकता देने के बजाय बाहर से क्यों खरीदती? पूर्व योजना के तहत वह धनतेरस की दोपहर में ही मेरे घर आने वाली थी, इसलिए मैंने उसके लिए लंच भी बना रखा था, लेकिन किसी कारण से वह शाम 6 बजे पहुंची।
दूर से आयी थी, मैंने बैठाया और जल्दी से उसके सब आइटम्स में से जो मेरे काम का था, वो अलग रखा और एक पड़ोस की दोस्त को भी जल्दी से पूँछा, अगर उसे भी कुछ सामान चाहिए। और इस तरह उसने भी कुछ चीजें ख़रीदा। लक्ष्मी खुशी से फूली नहीं समा रही थी क्योंकि वैसे तो हम पहले बाहर मिल चुके थे और संपर्क में तो हैं, लेकिन मेरे घर में वो पहली बार आई थी। सँझा पहर की व्यस्तता थी, मेरे पास समय बहुत कम था, धनतेरस के दीये भी जलाने थे, घर का काम भी देखना था और लक्ष्मी को ज्यादा अँधेरा होने से पहले वापस भी भेजना था।
इतने में मैं कुछ काम में लगी और उसे फेमिली से मिलवाई। पतिदेव ने लक्ष्मी को मनी सेविंग्स और भविष्य की कुछ और जरूरी योजनाओं पर महत्वपूर्ण जानकारियों से अवगत कराया जिसमें लक्ष्मी को दिक्कतें आ रही थी। ये सब चीजें हमने इतनी जल्दी कर ली, फिर भी पलक झपकते ही एक घंटा बीत गया और शाम के 7 बज गए। लेकिन धन तेरस के दिन एक ऐसी बिटिया मेरे घर आई थी, जिसका कोई परिवार नहीं, इसलिए मैं और मेरा परिवार उसे तनिक भी ये एहसास नही देना चाहते थे कि हम दीवाली में व्यस्त हैं। इसी बीच बगल वाली बुजुर्ग आंटी भी फ़ोन में पूंछने लगी "अरे क्या हुआ शशि बेटा! धनतेरस का दिन है, घर में ही हो तो दरवाज़े पर दीये तो जला देती, सबका द्वार दीये और रंगोली से सज गया है, एक तुम्हारा ही सूना दिख रहा है।"
मैंने कहा "आंटी मेरे घर कोई आया है, मैं बाद में आपसे बात करती हूँ।" वो फिर अपने चिरपरिचित अन्दाज़ में बोली "अरे! उनकी दीवाली नहीं है क्या जो ऐसे टाइम में घर में डंटे हुए हैं।" मैंने उन्हें कुछ जवाब नहीं दिया, लेकिन उनका वह आखरी वाक्य मेरी आत्मा को झकझोर गया। मैंने मन में सोचा सचमुच इस लक्ष्मी की दीवाली तो अभी जो हमारे साथ है वही है, उसके बाद जब वह वापस अपनी जगह जायेगी, तो कहाँ कोई है जिनके साथ वह दीवाली मनाएगी। इसलिए मैंने सोचा मेरे दरवाज़े पर दीया देर से भी जले और रंगोली न भी बने तो कोई बड़ी बात नहीं, साक्षात् माँ लक्ष्मी के रूप में लक्ष्मी नाम की एक अनाथ बेटी आई है उसके ह्रदय में प्रेम व अपनत्व का दीप जलाना ज्यादा ज़रूरी था, उसके चेहरे पर रंगोली की तरह इंद्रधनुषी चमक, उत्साह व आनन्द की अनुभूति देना ज्यादा जरूरी था।
एक मिनट के लिए इस बात को गहराई से सोंचे क्या वह सार्वभौमिक लक्ष्मी माँ मुझे माफ़ करती, अगर ऐसे पावन मौके पर एक अनाथ बेटी मेरे घर से थोड़ी भी उपेक्षित होकर वापस लौटती? वास्तव में माँ मेरे घर द्वार सजाने से पहले 6 बजे से ही पधार चुकी थी, इसी लक्ष्मी बिटिया का रूप धारण करके, और घर के अंदर सब शुभ ही शुभ हो रहा था, माँ की कृपा के दीप घर के कोने-कोने में दमक रहे थे। इसके बावजूद अगर उस माँ के इतने भव्य व भावभीना आगमन व अभिव्यंजना को मैं न समझती, न पहचानती तो माँ शायद ही दोबारा हमारी ओर दृष्टि डालती। जिस तरह से यह दिव्य संयोग धनतेरस के दिन हुआ, मेरे जीवन की किताब में एक और भावपूर्ण अध्याय जुड़ गया तथा ह्रदय गागर, अपार कृतज्ञता से छलकने लगा। इससे सुन्दरतम दीपावली उपहार भला और क्या हो सकता है?
*शशि दीप ©*
*मुंबई*
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