व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर : हरिशंकर परसाई
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अध्यक्ष - अर्चना साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था, नागपुर
हिंदी साहित्याकाश के दैदीप्यमान नक्षत्र, ज्ञानदायिनी माँ शारदा के वरद पुत्र, गणनाप्रसंगे कनिष्ठकाधिष्ठाता श्री हरिशंकर परसाई जी का नाम व्यंग्य विधा में अग्रगण्य माना जाता है। मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के जमानी नाम के छोटे से गाँव में परसाई जी का मध्यमवर्गीय परिवार में 22अगस्त1924 को जन्म हुआ। आपका संपूर्ण जीवन अत्यंत संघर्ष पूर्ण रहा है। बचपन में ही आपने अपनी माँ को खो दिया और कुछ दिनों बाद ही पिता के साए से भी वंचित हो गए। आपके ऊपर छोटे भाई-बहनों के लालन-पालन की जिम्मेदारी आ गई। सचमुच उस समय चार-चार भाई बहनों की परवरिश करना अत्यंत दुष्कर कार्य था।
विषम परिस्थितियों में परसाई जी ने मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की और वन विभाग में नौकरी करने लगे। जंगल में ही सरकारी टपरे में रहते थे। ईंटों की चौकी बनाकर पटिया और चादर बिछाकर सोया करते थे जहाँ चूहों की धमा-चौकड़ी रात भर चलती थी। परसाई जी के शब्दों में-" चूहों ने बड़ा उपकार किया। ऐसी आदत डाली कि आगे की जिंदगी में भी इस तरह के चूहे मेरे नीचे ऊधम करते रहे हैं, साँप तक सर्राते रहे हैं, मगर मैं पटिया बिछाकर पटिए पर सोता हूँ।" परसाई जी ने कभी किसी परंपरा का निर्वाह नहीं किया।उनके स्वाभिमानी और आदर्शवादी व्यक्तित्व ने उन्हें किसी एक जगह नौकरी पर टिकने नहीं दिया। किंतु इन विषम परिस्थितियों में भी उन्होंने जीवन में कभी हार नहीं मानी।
आर्थिक तंगी के बावजूद उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की और अध्यापन कार्य भी शुरू किया। कुछ वर्षों तक अध्यापन कार्य करने के बाद उन्होंने 1947 में विद्यालय की नौकरी छोड़ दी और जबलपुर में रहकर स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य शुरू कर दिया। यहीं रहकर उन्होंने साहित्यिक पत्रिका 'वसुधा' का प्रकाशन और संपादन किया। इसके अलावा एक दैनिक समाचार पत्र में 'पूछो परसाई से' नामक स्तंभ बराबर लिखते रहे जहाँ पर पाठकों के सवालों के माध्यम से विचार-विमर्श किया जाता रहा। व्यंग्य के विषय में परसाई जी का कहना है-"व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है,जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों, अत्याचारों, मिथ्याचारों और पाखंडों का प्रदर्शन करता है।" 'अपनी-अपनी बीमारी' नामक व्यंग्य में आपने लिखा है- "चंदा मांगने वाले और देने वाले एक दूसरे के शरीर की गंध बखूबी पहचानते हैं। लेने वाला गंध से जान लेता है कि यह देगा या नहीं और देने वाला भी मांगने वाले के शरीर की गंध समझ लेता है कि यह बिना लिए टल जाएगा या नहीं।"
कितने लोग हैं जिनकी महत्वाकांक्षा होती है कि टैक्स की बीमारी से मरें, पर मर जाते हैं निमोनिया से। मेरे पास एक आदमी आता था जो दूसरों की बेईमानी की बीमारी से मारा जाता था अपनी बेईमानी प्राण घातक नहीं होती बल्कि संयम से साधी जाए तो स्वास्थ्यवर्द्धक होती है।
यहाँ पर परसाई जी का एक चर्चित व्यंग्य 'एक मध्यमवर्गीय कुत्ता' का वर्णन अवश्य करना चाहूँगा। परसाई जी को कुत्तों से बहुत डर लगता था। एक परिचित ने मुझे घर पर चाय के लिए बुलाया। मैं उनके बंगले पर पहुँचा तो फाटक पर तख्ती टँगी दिखी- 'कुत्ते से सावधान'। मैं फौरन लौट गया। कुछ दिनों बाद वे मिले तो शिकायत की, 'आप उस दिन चाय पीने नहीं आए।' मैंने कहा-'माफ करें। मैं बंगले तक गया था। वहाँ तख्ती लटकी थी-'कुत्ते से सावधान'। मेरा ख्याल था, उस बंगले में आदमी रहते हैं पर नेमप्लेट कुत्ते की टंगी हुई दिखी।'यूँ कोई-कोई आदमी कुत्ते से बदतर होता है। मार्क ट्वेन ने लिखा है-'यदि आप भूखे मरते कुत्ते को रोटी खिला दें तो वह आपको नहीं कटेगा। कुत्ते में और आदमी में यही मूल अंतर है।'
परसाई जी ने कबीरदास जी की परंपरा का कई जगह निर्वाह किया है। वह अकारण अतार्किक रूप से किसी बहाने से दूसरे की निंदा- शिकायत करने वाले लोगों पर व्यंग्य करते हुए 'वह जो आदमी है न'में लिखते हैं-'निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं। निंदा खून साफ करती है, पाचन क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है। निंदा से मांसपेशियाँ पुष्ट होती हैं। निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है।
संतों को पर निंदा की मनाई होती है इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं। 'मौसम कौन कुटिल खल कामी' यह संत की विनय और आत्मग्लानि नहीं है, टॉनिक है। संत बड़ा काइयाँ होता है। हम समझते हैं वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है। स्वास्थ्य विज्ञान की एक मूल स्थापना तो मैंने कर दी अब डॉक्टरों का कुल इतना काम बचा है कि वह शोध करें कि किस तरह की निंदा में कौन से और कितने विटामिन होते हैं, कितना प्रोटीन होता है। मेरा अंदाज है,स्त्री संबंधी निंदा में प्रोटीन बड़ी मात्रा में होता है और शराब संबंधी निंदा में विटामिन बहुत होते हैं।
इसी संदर्भ में परसाई जी आगे कहते हैं कि मेरे सामने जो स्वस्थ सज्जन बैठे हैं वह कह रहे थे -आपको मालूम है वह आदमी शराब पीता है। मैंने ध्यान नहीं दिया। उन्होंने फिर कहा-वह शराब पीता है। निंदा में अगर उत्साह न दिखाओ तो करने वालों को जूता-सा लगता है। वह तीन बार कह चुके और मैं चुप रहा। तीन जूते उन्हें लग गए। अब मुझे दया आ गई।उनका चेहरा उतर गया। मैंने कहा-पीने दो। वह चकित हुए,बोले- पीने दो, आप कहते हैं पीने दो। मैंने कहा-हाँ,हम लोग न उसके बाप हैं, न शुभचिंतक। उसके पीने से अपना कोई नुकसान भी नहीं है। उन्हें संतोष नहीं हुआ। वह उस बात को फिर-फिर रेतते रहे। तब मैंने लगातार उनसे कुछ सवाल कर डाले। आप चावल ज्यादा खाते हैं या रोटी? किस करवट सोते हैं? जूते में पहले दाहिना पाँव डालते हैं या बायाँ?
अब वे हीं-हीं पर उतर आए, कहने लगे-यह तो प्राइवेट बातें हैं, इनसे क्या मतलब। मैंने कहा- वह क्या खाता-पीता है यह उसकी प्राइवेट बात है,मगर इससे आपको जरूर मतलब है। किसी दिन आप उसकी रसोईघर में घुसकर पता लगा लेंगे कि कौन-सी दाल बनी है और सड़क पर खड़े होकर चिल्लाएँगे-वह बड़ा दुराचारी है,वह उड़द की दाल खाता है।
रिटायर्ड आदमी की बड़ी ट्रेजडी होती है। व्यस्त आदमी को काम करने में जितनी अक्ल की जरूरत पड़ती है, उससे ज्यादा अक्ल बेकार आदमी को समय काटने में लगती है। रिटायर्ड वृद्ध को समय काटना होता है। वह देखता है कि जिंदगी भर मेरे कारण बहुत कुछ होता रहा है पर अब मेरे कारण कुछ नहीं होता। वह जीवित संदर्भों से अपने को जोड़ना चाहता है पर जोड़ नहीं पाता। उसने देखा कि मैं कोई हलचल पैदा नहीं कर पा रहा हूँ। छोटी-सी तरंग भी मेरे कारण जीवन के इस समुद्र में नहीं उठ रही है।
हमारे चाचा जब इस न कुछपन से त्रस्त होते,परिवार में लड़ाई करवा देते। खाना खाते-खाते चिल्लाते-दाल में क्या डाल दिया? कड़वी लगती है मुझे मार डालोगे क्या? हम कहते- दाल तो बिल्कुल ठीक है। कहते-क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ? भगवान की कसम परिवार में लड़ाई हो जाती है।
एक जगह परसाई जी लिखते हैं- ज्यादाद हाय-हाय करती रहती है कि मेरा क्या होगा। आदमी को आदमी नहीं चाहिए, जायदाद को आदमी चाहिए।
आपने समाज में बढ़ते बाजारीकारण और लिखने-पढ़ने की परंपरा पर व्यंग्य करते हुए लिखा है- बाजार बढ़ रहा है। इस सड़क पर किताबों की एक नई दुकान खुली है और दवाओं की दो ।ज्ञान और बीमारी का यही अनुपात है हमारे शहर में।
आपने बहुत सारे निबंध लिखे हैं। परसाई जी के कई व्यंग्य निबंध संग्रह, उपन्यास, संस्मरण प्रकाशित हुए जिनमें पगडंडियों का जमाना, सदाचार का ताबीज, वैष्णव की फिसलन, विकलांग श्रद्धा का दौर, प्रेमचंद के फटे जूते, ऐसा भी सोचा जाता है, तुलसीदास चंदन घिसैं जैसे कुछ निबंध ख्यात नाम हैं। लेखन से हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाने और बहुमूल्य योगदान के लिए उन्हें 1982 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया और 10 अगस्त 1995 को उन्होंने इस दुनिया को सदा-सदा के लिए अलविदा कह दिया।
परसाई जी ने व्यंग्य विधा को साहित्यिक प्रतिष्ठा प्रदान की है। उनके व्यंग्य लेखों की उल्लेखनीय विशेषता यह है कि वे समाज में आई विसंगतियों, विडंबनाओं पर करारी चोट करते हुए चिंतन और कर्म की प्रेरणा देते हैं। उनके व्यंग्य गुदगुदाते हुए पाठक को झकझोर देने में सक्षम हैं। भाषा प्रयोग में परसाई को असाधारण कुशलता प्राप्त है।
आम भारतीय जो गरीबी में, गरीबी की रेखा पर, गरीबों की रेखा के नीचे है, वह इसलिए जी रहा है कि उसे विभिन्न रंगों की सरकारों के वादों पर भरोसा नहीं है। भरोसा हो जाए तो वह खुशी से मर जाए यह आदमी विश्वास,निराशा और साथ ही जिजीविषा खाकर जीता है।
परसाई जी हमेशा सरल भाषा के पक्षधर रहे। उनके वाक्य छोटे-छोटे एवं व्यंग्य प्रधान हैं। संस्कृत शब्दों के साथ-साथ उर्दू एवं अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग भी वे पर्याप्त मात्रा में अपनी व्यंग्य रचना में करते रहे हैं। परसाई जी भाषा के मर्मज्ञ थे। हरिशंकर परसाई स्वातंत्र्योत्तर भारत के सबसे सशक्तजन उनके संपूर्ण साहित्य की बानगी व्यंग्य की आधारशिला पर टिकी हुई है। श्री प्रेम जनमेजय का मानना है कि हरिशंकर परसाई का लेखन सागर की तरह है। व्यंग्यकला में उन्होंने क्रांति ला दी थी।