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परसाई की प्रासंगिकता : तब और अब

                              

डॉ. आभा सिंह
असोसिएट प्रोफेसर - वी एम वी महाविद्यालय

यह वर्ष परसाई की याद का वर्ष है। परसाई को याद करना व्यंग्य की उस शक्ति को याद करना है जो साहस का अचूक उपाय मानी जाती है। यह सर्वविदित है कि साहित्य में कबीर एक ही हुए और एक ही हुए परसाई। परसाई को पढ़ना जितना सरल है, उतना ही कठिन है परसाई होना। हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद के बाद सर्वाधिक पढ़े जानेवाले साहित्यकार परसाई ही है। जैसे एक वैज्ञानिक, तथ्यों के परीक्षण से अपनी बात कहता है, वैसे ही कहते हैं परसाई भी। कोई लेखक कितना अपने समय से आगे चलता है, यह जानने का सर्वोत्तम तरीका है परसाई को जानना। परसाई का लेखन वह सब कहता है जो किसी सामाजिक, राजनीतिक और वैज्ञानिक चेतना के लेखक को कहना चाहिए। कोई भी साहित्यकार कितना साहसिक हो सकता है यह जानने का उदाहरण है परसाई। बात जहां तक प्रासंगिकता की है तो कोई भी  साहित्यकार तब प्रासंगिक होता है, जब वह हमारे युग में वैसे ही समाता है, जैसे उसकी अनिवार्यता इस समय के लिए ही है।

परसाई को प्रासंगिक कहने की बजाय हमें उन्हे अनिवार्य कहना चाहिए। प्रासंगिकता के लिए जितना सरल परसाई का लेखन है उतना ही वास्तविक परसाई का उद्धरण है। परसाई जिस सामाजिक विडंबना की बात करते उसे सुनकर लगता कि यह हालात बुरे है लेकिन वास्तव में जो बुरा है वह है हमारी श्रद्धा का आडंबर में परिवर्तित हो जाना। सामाजिक मूल्यों की बेकदरी उन्हें चिंतित करती और वे राजनीति को भी इसका दोषी मानते हुए कहते कि, ‘वास्तव में यह दौर राजनीति में मूल्यों की गिरावट का था। इतना झूठ,फरेब,छल पहले कभी नहीं देखा था। दगाबाजी संस्कृति हो गई थी। दोमुंहापन नीति। बहुत बड़े बड़े व्यक्तित्व बौने हो गए। श्रद्धा सब कहीं से टूट गई।’1 राजनीति परसाई का प्रिय विषय रहा है। इसलिए नहीं कि राजनीति पर बोलना आसान है, बल्कि इसलिए कि राजनीति समाज पर बहुत गहरा प्रभाव डालती है।
                                                                                                                                                                                                                                परसाई का लेखन अपने कथात्मक पैनेपन के कारण अविस्मरणीय है। हरिशंकर परसाई का लेखन उस समय का है जब भारतीय लोकतंत्र अपने प्रारंभिक दौर में था। नई-नई चुनौतियों का सामना आए दिन होना स्वाभाविक था। देश दो पलड़ो में था। एक तरफ आजादी के बाद का बदहाल हो चुका भारत और दूसरी ओर लोकतंत्र के तराजू में खुद को तौलने वाला भारत। इन सबके बीच सबसे बड़ी चुनौती बनी सामाजिक परिवर्तन की अनिवार्यता। यह परसाई के व्यंग्य का ही संतुलन था कि परसाई कभी असंतुलित नहीं हुए। परसाई जी द्वारा एक हकीकत का अफसाना और बीस साल के लिए टूटी टांग और बिस्तर पर सिमटा जीवन होने के बाद भी परसाई के व्यंग्य की धार का ना तो पैनापन गया न वह बोथरा हुआ। परसाई की विविध शैलियों में व्यंग्य सबसे सक्रिय विधा रही। 

परसाई को पढ़ना दरअसल समूचे व्यंग्य विमर्श को समझना है। “हम ना मरि हैं; मरि है संसार’ कहने वाले परसाई उन साहित्यकारों में अग्रणी है जिन्होंने सच और संभावना में से सच को चुना। जिन्होने सांप्रदायिकता और स्वार्थ को देखकर कभी आँखें बंद नहीं की। जिन्होंने लेखनी इसलिए नहीं उठाई की वह एक सुसभ्य समाज का प्रतीक थी बल्कि इसलिए उठाई कि वह इसी समाज की चेतना की अनिवार्यता थी।  
वर्तमान समय वह दौर है जब परसाई अधिक प्रासंगिक हो गए है। परसाई कहा करते कि जब भी कोई रचना लिखी जाती तब लिखने वाला कोई लेखक नहीं होता वह मानव हो जाता है। 

परसाई को उनके लेखन के लिए आम वर्ग से जितनी सराहना मिली उतनी ही धमकियाँ खास वर्ग की भी मिली। हर धमकी पर वे कहते की लिखना सार्थक हो गया। यह पंक्तीया उस व्यक्ति की है जो आजाद भारत के कान उमेठने के लिए सदा तत्पर ही मिले। जब भी साहित्य की बात उसकी सार्थकता के लिए की जाएगी तब तब परसाई का नाम उसकी सार्थक उपलब्धि के तौर पर लिया जाएगा। परसाई का लेखन केवल लिखना नहीं था वह उनकी पीड़ा थी। यह तड़प एक व्यंग्यकार ही महसूस कर सकता है कि मर कर भी मुक्ति न मिलने की दशा व्यवस्था की किस बिमारी से उत्पन्न होती है। इस बीमारी को परसाई ने भोलाराम के जीव से डाइग्नोस करवाई। भोलाराम का जीव  साधारण मनुष्य की विवशता को मरणोपरांत भी मरने नहीं देता। सरकारी कागजों में खोया जीव साधना करता है अधिकार के सुख के लिए। वह सूख जो उसके भाग्य में तो है लेकिन हिस्से में नहीं है। 

सरकारी तंत्र की भ्रष्टाचारी प्रवृत्ति आमजन की लाचारी है। अपनी लेखनी से परसाई इसी भ्रष्टता की चर्चा करते रहते है। भोलारम का जीव अपनी मुक्ति चाहता है और उसके लिए तड़पता है। ‘वजन’ रूपक है भ्रष्टाचार का। भ्रष्ट हो चुके तंत्र में ऐसा कुछ नहीं बचा जो मनुष्य की मुक्ति का अंतिम कारक हो सके। नारद द्वारा पूछना कि भोलाराम को क्या बीमारी थी और पत्नी का यह कहना कि,गरीबी की बीमारी थी। पाँच साल हो गए,पेंशन पर बैठे। पर पेंशन अभी तक नहीं मिली। हर दस पंद्रह दिन में एक दरख्वास्त देते देते थे,पर वहाँ से या तो जवाब आता ही नहीं था और आता तो यही कि तुम्हारी पेंशन के मामले में विचार हो रहा है। इन पाँच सालो में सब गहने बेचकर हम लोग खा गए। फिर बरतन बिके। अब कुछ नहीं बचा था। चिंता में घुलते घुलते और भूखे मरते-मरते उन्होने दम तोड़ दिया।’

आज परसाई नहीं है लेकिन परिस्थिति में परिवर्तन भी नहीं है। आज दौर वैसा ही है जो इंसानियत  की कीमत नहीं समझता लेकिन  इंसान का दाम चाहता है। भोलारम का जीव पढ़ते हुए शायद ही किसी के मन में यह प्रश्न उपजा हो कि कौन है या भोलाराम? क्या हकीकत में ऐसे किरदार होते हैं? यह विडम्बना ही है कि हम सब ने मान लिया है कि भोलाराम  जैसे जीव होते है। कार्यालयों में इतना भ्रष्टाचार होता है कि व्यक्ति के प्राण चले जाए लेकिन समस्या नहीं जाती। भ्रष्टाचार के प्रति इस रूढ सोच के कारण ही अपने एक लेख में परसाई कहते है कि, ‘सबसे निरर्थक आंदोलन भ्रष्टाचार के विरोध का आंदोलन होता है। एक प्रकार का यह मनोरंजन है जो  राजनैतिक पार्टी कभी कभी खेल लेती है,जैसे कबड्डी का मैच।’

हरिशंकर परसाई के पात्र हमेशा उनके हस्ताक्षर रहे। वे व्यंग्य में और व्यंग्य उनमें सदा विद्यमान रहा। अपने किरदारों को लेकर वे हमेशा आश्वस्त रहे। चाहे धर्म का क्षेत्र हो चाहे राजनीति का,चाहे धूल-मिट्टी में रमता मजदूर जीवन हो या पनवाड़ियों और रिक्शा चालकों का जीवन संघर्ष, वे इन्हीं में से अपने पात्र ढूंढ़ लेते थे। परसाई जी ने शिल्प लेखन के चले आ रहे नियमों को तोड़ते हुए कुछ नए शिल्पों और शैली का प्रारंभ किया। वे साहित्य में चल रहे नामकरण पर भी अपनी दृष्टि रखते। वे इस बात से सहमत होते कि ‘कृति में समय बोलना चाहिए’। जिस रचना में सामाजिक यथार्थ ना हो वह रचना जीवित  नहीं।

परसाई की वैचारिक मजबूती यूं तो उनके साहसी व्यंग्य में व्यक्त होती थी लेकिन अनेक ऐसे प्रसंगों में से एक विशेष उल्लेखित है जब रचनार्थियों की दृष्टि सामाजिक विषमता और युग संघर्ष को देखते देखते यथार्थवादी हुई और फिर मार्क्सवादी हो गई। यह अस्सी का दशक था। इस समय बांग्ला साहित्य में आक्रोश का आगमन हो चुका था। मराठी साहित्य तो दलित साहित्य की चुनौतियों का सामना ही नहीं कर पा रहा था। मराठी के साहित्यकारों ने भूख से संघर्ष को अपना मूल कथ्य बनाया था। नामदेव ढ़साल जी की एक कविता ‘भूख’ ने सभी विमर्शों को मजबूर कर दिया था जिसमें उन्होने भूख लगने को नहीं बल्कि भूखा रखने की मानसिकता और भूखा रखने वालों को चुनौती दी थी। चुनौती देते समय कवि ने जिस भाषा का उपयोग किया उससे श्लील और अश्लील का मुद्दा गरमा गया। यह मुद्दा जब परसाई जी के पास पहुंचा तो उन्होने आक्रोश को प्राथमिकता दी।

परसाई जी ने लिखा-नामदेव ढ़साल की कविता में आई ये गालियां कतई अश्लील नहीं है। अधिक से अधिक उन्हे शास्त्रीय पवित्रतावादी ‘फूहड़’कह सकते है। पुराने सौंदर्यशास्त्र की दृष्टि में फूहड़पन दोष है पर वर्जित नहीं। अब उस सौंदर्यशास्त्र के धुर्रे उड़ गए और नया सौंदर्यशास्त्र आ गया है। अब अभिजात वर्ग का सौंदर्यशास्त्र नहीं चलता। सड़क की गंदी बस्तियों का, भुखमरों की झोपड़ियों का,अधपेट,अधनंगे मजदूरों का, गंदी नालियों का सौंदर्यशास्त्र चल रहा है। इस वर्ग विशेष की पीड़ा और छटपटाहट को, पीड़ा को और क्रोध को व्यक्त करने के लिए नपुंसक अभिजात भाषा सक्षम ही नहीं है। उसके लिए तो जीवंत, खड़ी, ठेठ और चुटीली भाषा ही चाहिए। वर्ण व्यवस्था पर इसी इसी तरह की चोट वे ‘हस्ती मिटती नहीं हमारी’ स्तंभ लेख में कर चुके थे। 

परसाई के व्यंग्यों का प्रयास था सोई हुई नैतिक सामाजिक चेतना के प्रति। कटाक्ष का स्तर समाज की सोई हुई नैतिक चेतना के  प्रति चिंतित होते तो कहते-‘वर्तमान में लोग खोमचे में ईमान लेकर घूमते है।’5 समाज की अव्यवस्था से बेचैन होने वाला अपने आपको राजनैतिक परिवर्तन की प्रतिक्रिया से मुक्त नहीं रख पाता, ठीक उसी तरह परसाई का राजनैतिक स्तंभ लेखन महत्वपूर्ण है जो प्रजातन्त्रवाद का समर्थन करता है और पूंजीवाद को एक नासूर की उपमा देते हुए तीखे व्यंग्य भी करता है फिर चाहे वह अंतर्राष्ट्रीय राज्यदर्शन हो या राष्ट्रीय विसंगतिया। उन्होने हर राजनैतिक गतिविधि पर कटाक्ष किया जो साधारण  जनता को डमरू बजाकर नचवाने की तैयारी में होती थी।

समाज का कहो या राजनीति का या शिक्षा जगत का सब तरफ परसाई है और परसाई की पैनी नजर है। परसाई के समय जो धर्म का स्वांग था, वह स्वांग आज भी है। आज भी धर्म की लाठी से हजारो बेरोजगारों को धकियाया जाता है। परसाई ने तो धर्म को अफीम का नशा कहा है जो कि सही है। वह सारी परिस्थितियाँ आज भी है जो परसाई के समय में थी। चिंतन का मुद्दा यही है कि इतने लंबे समय के बाद भी यह विवशता क्यों है कि राजनीति सत्ता मोह के लिए होती है। साधारण इंसान की चेतना कभी सचेत होती ही नहीं। सरकारी तंत्र का ढांचा अपने शरीर के मोह को त्यागना ही नहीं चाहता। समाज में आज भी ईर्ष्या और आडंबर का बोलबाला है। यह सारी स्थितियाँ जब तक जस की तस रहेगी तब तब कोई भोलाराम कोई मातादिन जरूरी होते रहेंगे जो परसाई की प्रासंगिकता को बरकरार रखेंगे।  
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