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लिखने चला तो..


होता नहीं है मन का अब तो संवरण।
क्या लिखें, कविता कथा या संस्मरण।

सब लिखा जब जो समय के भाव थे।
वह लिखा, जो मन में जैसे चाव थे।
खुशियाँ लिखीं और लिखे जो घाव थे।
चलना लिखा, चलते हुए जो पाँव थे।
लिखते चले, चलते चले थे शुभ चरण।
होता नहीं है मन का अब तो संवरण।।

घर लिखा, और घर में लिखा परिवार भी।
लिख दिया वन गहन और सब संसार भी।
धोखे लिखे, झगड़े लिखे, और प्यार भी।
लिख दी हँसी, रोना लिखा, मनुहार भी।
जो छिपा था वो लिखा, और फिर आवरण।
होता नहीं है मन का अब तो संवरण।।

जब लिखा धरती गगन और आग पानी।
वायु का बहना लिखा, दरिया की रवानी।
बचपन बुढ़ापा मध्य में लिख दी जवानी।
साँसें लिखीं, धड़कनें लिख दी सुहानी।
लिखा जन्म तो लिख दिया है जीवन मरण।
होता नहीं है मन का अब तो संवरण।।

- परमात्मानंद पांडेय 'मतवाला'
   नागपुर, महाराष्ट्र 
काव्य 1803254300366919580
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