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खामोश दरारें




दरारें -
छोटा-शब्द,
मगर बड़ा खुराफाती।
शुरू में दिखती नहीं,
फिर खाई में बदल जाती है।

बाँध हो, दीवार हो, टायर हो या फिर दिल,
जहाँ भी दरार आए,
काम बिगाड़ देती है।
दरार का अंत समझने से पहले
थोड़ा ठहरना चाहिए...
वरना सब कुछ हाथ से 
निकल जाता है।

कुछ कहते हैं: दरारें जुड़ती है
‘जोड़ लो, सुधार लो, भुला दो’ -
पर टूटें रिश्ते तो
फूटे शीशे जैसे होते हैं।

जोड़ने पर भी
धागे दिखते हैं,
छवि बिखरती है,
और सबसे बड़ी बात 
चेहरा साफ़ नहीं दिखता।

तो क्या फायदा
हर दिन खुद को
दरारों में देख- देखकर चुभने का?

सलीका ही बचाव है
टूटने से पहले
रिश्तों को सलीके से रखो,
जैसे पुरानी चीजें
जो दिखती नहीं रोज़,
पर जब-जब देखो,
दिल को छू जाती हैं।

ना ज़्यादा हाथ लगाओ,
ना बेपरवाही करो।
थोड़ा वक्त दो,
थोड़ी अहमियत,
रिश्ते अगर
मन से संभाले जाएं,
तो दरारें
दहलीज तक नहीं पहुँचतीं।

दरारें अक्सर इंसानों की बीमारी होती है
पेड़, पहाड़, समंदर -
ये सब टूटकर भी जुड़ जाते हैं
या फिर प्रयास करते है
पर इंसान..?
इंसान दरारें पालता है,
सीने में दबाकर रखता है,
और पीढ़ियों तक
उन्हें विरासत की तरह सौंप देता है।
क्यों की 
पर इंसानी दिल में जड़ें जमा लेती हैं।

दरारें तो भूत बन जाती हैं
दरारें सिर्फ जीते जी नहीं सतातीं -
मरने के बाद भी पीछा करती हैं।
हर रात किसी अधूरी बात की तरह
सपनों में लौट आती हैं।

वो रिश्ते जो कभी कह नहीं पाए,
जो खत्म नहीं हुए,
बस टूटकर चुप हो गए,
वही भूत बन जाते हैं।

दरवाज़ा खटखटाते हैं,
नाम लेकर पुकारते हैं,
और कहते हैं -
‘हम अभी जिंदा हैं,
तुम्हारे अंदर..’

अंततः

दरारें
चीज़ों में नहीं,
इंसानों में आती हैं।
और
अगर उन्हें समय रहते
सलीके से ना संभाला जाए,
तो वो हमसे
हमारा खुद का चेहरा भी
छीन लेती हैं!

- राजेन्द्र चांदोरकर 'अनिकेत'
   नागपुर, महाराष्ट्र 
   दूरभाष : ९४२३१०२५४३
काव्य 4679800966777057829
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