मन का बंदर
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हम जब से होश सम्हालते हैं, हमारे व्यक्तित्व में दो अलग व्यक्तित्व जुड़ जाते हैं, और हमें मालूम भी नहीं होता कि हम, हम नहीं रहे, कुछ और हो गए।
ये दो व्यक्तित्व हैं राम और रावण।
दोनों में संघर्ष चलता रहता है- सुबह जब हम उठते हैं तब से रात को सोते वक्त तक, यहाँ तक नींद में भी हमारे मन में राम-रावण का युद्ध चलता रहता है। और युद्ध क्षेत्र है हमारा मन।
कभी इस युद्ध में राम की जीत होती दिखाई देती है तो कभी रावण की।
हमें अपने आप को इस समाज में टिके रहने के लिये बहुत सी बातें चाहते हुए या न चाहते हुए भी करनी पड़ती है ।और इसमें हम इतने व्यस्त हो जाते हैं कि मन का मनन नहीं कर पाते या यूँ कहें कि हम अपने मन को टटोल नहीं सकते। इसलिए हम अपने मन में चल रहे इस भयावह युद्ध को समझ नहीं सकते।
यही है द्वैत।
द्वैत यानी एक ही समय मन में दो विरोधी गतिविधियाँ लगातार मशीन की भांति चलती रहती हैं। कल्पना करें कि एक घुड़सवार घुड़सवारी कर रहा है, लेकिन उसके पांव एक घोड़े पर नहीं बल्कि दो घोड़ों पर है, और मजे की बात यह है कि दोनों घोड़े विपरीत दिशा में चल रहे हैं। उस घुड़सवार की हालत क्या होगी!
मन एक बंदर की तरह होता है, उछल- कूद करते रहता है। राम और रावण इसे अपनी ओर खींचते रहते हैं। अधिकांश समय रावण जीतता है और राम हारते हैं।
हम चाहते हैं कि रावण की हार हो, लेकिन अधिकतर वही विजेता होता है।
हमें इस द्वैत से अद्वैत की ओर चलना है। अद्वैत यानी हमारा मन दो भागों में न बटे, एक ही दिशा में चले। 
यह ऐसे ही नहीं हो सकता।
हमारे मन में बैठे बंदर को सम्हालना होगा जो कि मनन द्वारा संभव है, ध्यान द्वारा संभव है।
जब हम ध्यान में डूबते हैं, तो एक के बाद एक मन की परतें हटतीं जाती हैं, और जो मिलता है वह है निर्गुण निराकार सत्य का स्वरूप, जिसे  सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह जी ने *सत् श्री अकाल* कह कर संबोधित किया।
- डॉ. शिवनारायण आचार्य 
   नागपुर, महाराष्ट्र 
