भारतीय सिनेमा को समृद्ध बनाने में उर्दू भाषा का योगदान
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भारतीय सिनेमा के दर्शक केवल भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया के बहुतेरे देशों में भी हैं, जो हिन्दी एवं अन्य भाषाओं की फ़िल्में देखते हैं और उसकी तारीफ़ करते हैं। भारतीय सिनेमा के निर्माण में देश के भिन्न-भिन्न राज्यों के कलाकार और तकनीशियन कार्यरत हैं, लेकिन फ़िल्मों को मक़बूल बनाने में उर्दू संवादों, गीतों और ग़ज़लों की अहम भूमिका रही है।
भारत में सबसे पहले निर्माता और निर्देशक दादासाहेब फाल्के द्वारा बनाई गई फ़िल्म, 'राजा हरीश्चंद्र' 03 मई, 1913 को रिलीज़ हुई थी, उन दिनों बननेवाली फिल्में तत्कालीन संस्कृत नाटकों और पारसी थिएटर से प्रभावित हुआ करती थीं, चूंकि फ़िल्में मूक थीं, जिसमें न तो संवाद होते थे और न ही कोई गीत; लेकिन 1931 में एक सावाक फ़िल्म 'आलमआरा' के बनते ही फ़िल्मों के निर्माण में तेज़ी आ गई और इन फ़िल्मों की कहानी को आगे बढ़ाने के लिए संवाद और गीतों की ज़रूरत महसूस की जाने लगीं और अब संवाद और गीत फ़िल्म की कहानी को ध्यान में रखकर लिखे जाने लगे,
आगे चलकर कुछ गीत ऐसे लिखे गए, जो उर्दू अदब की बेहतरीन रचनाओं मे शुमार हुए, लेकिन अफ़सोस साहित्यकारों का एक वर्ग आज भी फ़िल्मी गीतों को साहित्य रूप में स्वीकार नहीं करता है, परंतु फ़िल्मों के लिए रचे गए इन गीतों को सौंदर्य दृष्टि के साथ देखा जाए, तो यह सभी गीत, गैर-फ़िल्मी साहित्य से कमतर नहीं ठहरते, बावजूद इसके यह देखा गया है कि जब उर्दू अदब का कोई शायर अथवा हिंदी साहित्य का कोई कवि किसी फ़िल्म के लिए गीत, ग़ज़ल या कव्वाली लिखता है, तो उसे साहित्यिक परिधि से बाहर कर दिया जाता है।
लेकिन फिर भी भारतीय सिनेमा के कई हिंदी कथाकारों, गीतकारों और संवाद लेखकों ने अपनी पहचान स्थापित कर ली हैं। इसके विपरीत उर्दू जगत् का इस दिशा में झुकाव कम दिखाई देता है। यहाँ तक कि आज भी फ़िल्मी शायरों को वह इज्ज़त मय्यसर नहीं है, जिसके वह हक़दार हैं, दूसरी ओर एक बड़ा मज़ाक यह है कि उर्दू फ़िल्में, जिनके संवाद, नाम और गीत तक उर्दू में होते हैं, उन्हें "हिंदी" का प्रमाणपत्र दिया जाता है। जबकि पंजाबी फ़िल्मों को पंजाबी, गुजराती फ़िल्मों को गुजराती और मराठी फ़िल्मों को मराठी का सर्टिफ़िकेट मिलता है।
भारतीय सिनेमा और उर्दू भाषा का रिश्ता चोली दामन सरीखा है; जब भारत में रंगमंच (थियेटर) मनोरंजन का बड़ा साधन था, तब उर्दू शायर और लेखक विभिन्न नाट्य मंडलियों से जुड़े रहते थे, जिन्हें "मुंशी" कहा जाता था। बाद में जब भारत में फ़िल्मों की शुरुआत हुई, तब ये मुंशी फ़िल्मी दुनिया में आ गए और फ़िल्मों में स्क्रिप्ट राइटर, संवाद लेखक, कहानीकार और गीतकार कहलाने लगे। इस बीच कई उस्ताद शायरों का कलाम भी फ़िल्मों में शामिल किया जाने लगा।
इस दौरान कई बंगाली, गुजराती, मराठी आदि भाषा के जानकार कहानीकारों और गीतकारों ने बाकायदा उर्दू सीखी और अपनी रचनाओं व संवादों में वह कमाल दिखाया कि दर्शक उनके मुरीद हो गए और आमजन में उर्दू भाषा के प्रति गहरी रुचि पैदा हुई।
जिसके चलते फ़िल्म उद्योग में उच्चारण (तलफ़्फ़ुज़) पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। इस संदर्भ में कहा जाता है कि दिलीप कुमार ने लता मंगेशकर के उच्चारण पर आपत्ति की, तब लताजी ने एक मौलवी से उर्दू की शिक्षा ली। आज भी फ़िल्म इंडस्ट्री में ऐसे लोग हैं, जो कलाकारों का उच्चारण ठीक करते हैं और उन्हें उर्दू सिखाते हैं।
सिनेमा उद्योग में कई अभिनेता, निर्देशक और संगीतकार ऐसे थे, जो उर्दू के बड़े कवियों के प्रशंसक और दोस्त थे। इन नामचीन लेखकों और शायरों में आगा हश्र कश्मीरी, आरज़ू लखनवी, मुंशी प्रेमचंद, पंडित सुदर्शन, सआदत हसन मंटो, कृष्ण चंदर, राजेंद्र सिंह बेदी, इस्मत चुग़ताई, ख़्वाजा अहमद अब्बास, उपेंद्रनाथ अश्क, मजरूह सुल्तानपुरी, ख़ुमार बाराबंकवी, डॉक्टर राही मासूम रज़ा, साहिर लुधियानवी, शकील बदायूनी, राजा मेहदी अली खान, जाननिसार अख्तर, अली सरदार जाफ़री, कैफ़ी आज़मी, जावेद अख़्तर, निदा फ़ाज़ली, शहरयार, बशीर बदर, बशीर नवाज़, शाहिद कबीर आदि ने फ़िल्मों में उर्दू की प्रतिनिधि भूमिका निभाई है। ये सभी लेखक और कवि फ़िल्मों के अलावा साहित्य के लिए भी लिखते थे।
'लिखे जो ख़त तुझे वो तेरी याद में हज़ारों रंग के नज़ारे बन गए। सवेरा जब हुआ तो फूल बन गए, जो रात आई तो सितारे बन गए।' 'आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन, मेरा मन बिना ही बात मुस्कराए रे मेरा मन, मेरा मन, मेरा मन।' (गोपालदास नीरज), 'आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है।' 'किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार।' (शैलेंद्र), 'एक था गुल और एक थी बुलबुल, दोनों चमन में रहते थे।' (आनंद बक्षी) इन सभी गीतों का भाषाई विश्लेषण किया जाए, तो इसमें उर्दू के शब्दों की भरमार है, क्योंकि उर्दू भाषा की जादुई मिठास सबको अपनी ओर आकर्षित करने में सक्षम है।
भारतवर्ष एक वर्ग ऐसा है, जो उर्दू पढ़ना-लिखना जानता है और एक वर्ग ऐसा भी है, जो उर्दू रसम-उल ख़त से कत्तई नावाकिफ है, फिर भी वह उर्दू के मयार को बख़ूबी जनता है और इस तहजीब और नजाकत की भाषा से बेइंतहा मुहब्बत करता है। ऐसे लोग जो उर्दू के शब्दों को जानता और समझता है, वह तो उर्दू अल्फ़ाज़ की सही अदायगी करता है। लेकिन जो लोग इस भाषा से सर्वथा अपरिचित है, वह कैसे इस भाषा का आनंद उठा रहा है?यहाँ एक बात सामने आती है कि रसम-उल ख़त किसी भाषा को प्रस्तुत करने के लिए केवल एक साधन (tool) मात्र है, न कि स्वयं में एक भाषा है।
आज के सोशल मीडिया के इस युग में अनेक ऐसे प्लेटफॉर्म हैं जहाँ उर्दू शायरी को आप रोमन में पढ़ते हैं। यह उन लोगों के लिए सहायक हो सकता है, जो उर्दू लिपि पढ़ने में सक्षम नहीं हैं, लेकिन हिंदी सिनेमा के संवादों और गीतों की लयबद्धता के चलते लोगों को उर्दू भाषा समझने में किसी प्रकार की दिक्कत नहीं होती है। लेकिन दुःख की बात यह है कि हिंदी फ़िल्मों के नाम तक उर्दू में होते हैं, मगर उनके सर्टिफिकेट पर हिंदी फीचर फ़िल्म लिखा होता है और थिएटर के बाहर फ़िल्म के पोस्टर पर इंग्लिश में फ़िल्म का शीर्षक लिखा होता है। मेरा मानना है कि भारतीय सिनेमा एक बहुत बड़ा मंच है, जहाँ से उर्दू का कैनवास विस्तृत हुआ है, मगर अफ़सोस कि दर्शकगण उर्दू को हिंदी ही समझते हैं। खैर, यह एक रिसर्च का विषय है।
आइए! कुछ हिंदी फ़िल्मों के उर्दू शीर्षक पर बात करें, यदि इन शीर्षकों को हिंदी में लिखा जाता तो क्या होता - पाकीज़ा (पवित्र), शोले (अंगारे), हम दिल दे चुके सनम (हम हृदय दे चुके सनम), तेज़ाब (सांजा), इंतकाम (प्रतिशोध), दिल (हृदय), क़ैदी (बंदी), आँखें (नेत्र), आज़ाद (मुक्ति), गुलामी (दासता), मेरे हमसफ़र (मेरे सहयात्री), नज़र (दृष्टि), मुझसे शादी करोगी (मुझसे विवाह करोगी), कभी अलविदा न कहना (कभी विदा मत कहना) आदि और इसके साथ ही हिंदी फ़िल्म के कुछ प्रसिद्ध संवाद - कितने आदमी थे (कितने व्यक्ति थे), आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई (आपसे भेंट करके बहुत प्रसन्नता हुई), आपके पाँव देखे, बहुत हसीन हैं (आपके चरण देखे, बहुत सुंदर हैं), मेरे फाजिल दोस्त (मेरे श्रेष्ठ मित्र), मुझसे वादा करो कि तुम जिंदगी भर मेरा साथ निभाओगे (मुझे वचन दो कि तुम जीवन भर मेरा साथ निभाओगे) आदि इत्यादि।
संगीत पर, चाहे वह फ़िल्मी हो या प्राइवेट एल्बम, 90 के दशक में म्यूजिक एल्बम (फ़िल्मी और गैर-फ़िल्मी) का शौक इतना था कि कई फ़िल्मों की लागत केवल उनके एल्बम की बिक्री से निकल जाती थी, जैसे साजन, सड़क, दिल है कि मानता नहीं, आशिकी आदि । सिर्फ यही नहीं, हिंदी, पंजाबी और उर्दू के प्राइवेट एल्बमों का भी लोग बेसब्री से इंतजार करते थे और यकीन मानिए कि ग़ज़लों के एल्बम को बाज़ार से खरीदने वालों में उनकी संख्या अधिक होती थी, जो उर्दू लिखना और पढ़ना नहीं जानते थे... मगर वे मेंहदी हसन, जगजीत सिंह, गुलाम अली, लता मंगेशकर, आशा भोसले, तलत अज़ीज़, मुन्नी बेगम, फरीदा खानम, इक़बाल बानो के एल्बम का बेसब्री से इंतजार करते थे, दुकानदारों से एडवांस में बुक करवा लेते थे और उसे खूब सुनते थे। जब किसी शब्द पर अटकते, तो अपने उन दोस्तों को फ़ोन करते जो उर्दू भाषा से परिचित हैं। इसका व्यक्तिगत अनुभव मुझे स्वयं भी है। इस तरह यह भाषा फ़िल्म के थिएटर्स से लोगों के घरों तक घरों से बेडरूम तक पहुँच गई और इसका दायरा और भी व्यापक हो गया।
ग़ालिब के इस शेर का आनंद भाषा की सीमाओं से ऊपर उठ गया है :
'बागीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे,
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे।'
बहादुर शाह ज़फ़र की ग़ज़ल :
‘बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी,
जैसी अब है, तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी।'
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की ग़ज़ल :
'गुलों में रंग भरे, बाद-ए-बहार चले,
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले।'
अहमद फ़राज़ की ग़ज़ल :
'रंजिश ही सही, दिल दुखाने के लिए, आ, फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए।'
निदा फ़ाज़ली का कलाम :
'हर तरफ़, हर जगह, बेशुमार आदमी, फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी, कहीं-कहीं से हर चेहरा तुम जैसा लगता है,
तुम को भूल न पाएँगे हम ऐसा लगता है।'
शाहिद कबीर की ग़ज़ल :
'ग़म का खजाना, तेरा भी है, मेरा भी
ये नज़राना, तेरा भी है, मेरा भी,
बेसबब बात बढ़ाने की ज़रूरत क्या है,
हम ख़फ़ा कब थे मनाने की ज़रूरत क्या है।'
बशीर बदर :
'बहुत दिनों से तुम्हें देखा नहीं है; यह आँखों के लिए अच्छा नहीं है।
यूँ ही बिना वजह मत घूमा करो, किसी शाम घर में रहो।
वह ग़ज़ल की छोटी सी किताब है, इसे चुपके-चुपके पढ़ा करो।'
बशीर बदर की यह पंक्तियाँ केवल शब्दों का संग्रह नहीं हैं, बल्कि भावनाओं, संवेदनाओं और संस्कृति की झलक हैं। उनके ग़ज़लों और अश'आर की सरलता और गहराई पाठकों को चुपके-चुपके पढ़ने और आनंद लेने के लिए प्रेरित करती है।
बशीर बदर जैसे नामवर शायरों का काम साहित्यिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह केवल पढ़ने या लिखने तक सीमित नहीं रहता, बल्कि उर्दू भाषा के सौंदर्य और उसके संदेश को उन लोगों तक भी पहुँचाता है जो उर्दू से परिचित नहीं हैं। इस प्रकार, उनकी रचनाएँ भाषा की सीमा से परे जाकर समाज के बड़े हिस्से तक साहित्यिक और सांस्कृतिक ज्ञान पहुँचाती हैं।
यहाँ एक बात का उल्लेख करना ज़रूरी है कि
फ़िल्मों के प्रचार- प्रसार, गतिविधियों, फ़िल्मी समीक्षाओं और समाचारों के लिए उर्दू में उच्च-स्तरीय फ़िल्मी पत्र- पत्रिकाएँ प्रकाशित होती रही हैं। जिसमें मासिक शमा (नई दिल्ली), कहकशां (मुंबई), रंग-बिरंग (हैदराबाद), मासिक रूबी, सिने एडवांस (बंगलुरू) और फ़िल्म वीकली (कोलकाता) जैसी पत्रिकाएँ प्रमुख थीं, जो उर्दू भाषा में फ़िल्मों की उत्कृष्ट जानकारी उपलब्ध कराती थीं। अन्य उर्दू अख़बारों और पत्रिकाओं में भी "फ़िल्मियत' के लिए विशेष स्तंभ निर्धारित होते थे और रविवार के विशेष अंक में फ़िल्मी पृष्ठ शामिल किए जाते थे।
भारतीय सिनेमा में प्रयुक्त गीतों का भाषाई विश्लेषण किया जाए तो इसमें उर्दू के शब्दों की संख्या अधिक होगी। उर्दू भाषा का जादू ऐसा है जो अपनी ओर सबको आकर्षित करता है। एक वर्ग तो वह है जो उर्दू पढ़ना-लिखना जानता है और एक वह है जो न उर्दू रसम-उल ख़त पढ़ना जानता है और न लिखना.. मगर उर्दू से अत्यधिक प्रेम करता है, मतलब यह कि वह उर्दू समझता है और बोलना भी जानता है।
उर्दू संवाद, ग़ज़ल, संगीत, गायक ये सब उर्दू अदब और भारतीय फ़िल्म का अहम हिस्सा बन चुके हैं, और दोनों एक- दूसरे के बिना अधूरे हैं।
यहाँ मुझे अपना ही एक शे'र याद आता है -
जो भी कहता है उर्दू मुसलमानों की जबान है
दरअसल यह मान से ही अनजान है।
- डॉ. समीर कबीर
सहायक प्राध्यापक (उर्दू विभाग)
राष्ट्रसंत तुकड़ोजी महाराज नागपुर विश्वविद्यालय नागपुर, महाराष्ट्र
