विधाता
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ना मैंने,
वह ना दिखता है,
ना आवाज देता है,
सुनता है कि नहीं
मालूम नहीं,
लगता तो नहीं कि वह सुनता भी है.
ना कोई रंग,
ना रूप,
ना आकार,
कैसे कहें साकार
या निराकार,
और किस प्रकार,
चलो लड़ते हैं
आज उसी पे
आपस में हम दोनों,
निकाल लें खंजर,
भोंक दें एक दुजे को,
ज़ान लें लें
एक दुजे का,
बहा दें खून की नदीयां,
लाल कर दें इस खूबसूरत हरित धरती को,
कर दें बेवा
अपनी बीबीयों को,
कर दें अनाथ
एक दूसरे के बच्चों को,
जला दें कुछ वाहन,
तबाह कर दें घरों को,
और तो और
खत्म कर दें
ना केवल पीढ़ीयों को,
बल्कि विचारधाराओं को,
केवल यह सोच
कि किसकी सोच सही है,
और
जिस पर यह फ़साद हो रहा है,
हमारी नादानी देख
वह कहीं दूर बैठा हंस रहा है।
डॉ. शिवनारायण आचार्य
नागपुर (महाराष्ट्र)