जिंदगी के रंग
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कट जाती है रात फिर एक नया सवेरा है.
छोटी-छोटी ख्वाहिशों की दिनभर भागमभाग,
देखा तो पाया हर ख्वाब का डेरा है.
बस जिंदगी के चार दिन खुश रहकर बिताना हैं,
बच्चों की किलकारियों से हर गम भुलाना है.
कब टूट जाएगी यह सांसों की डोर,
यही सोच कर अब हंसना और हंसाना है.
धन दौलत पाने का कभी मन ना था,
जो मिला मुझको वह कम न था.
जो मुट्ठीयां बंद थीं वे खुली रह जाएंगी,
सारी ख्वाहिशें एक दिन बह जाएंगी.
क्या पाया,खोया और बांटा है हमने,
मेरे जाने के बाद खुद कहानियां कह जाएंगी.
- सुनीता आर. श्रीवास्तव.
गुलाब चौराहा, पुरानी बस्ती.
नरसिंहपुर (म.प्र.)