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रोटियां


बहुत सितम ढाती है रोटियां
जब नजर नही आती है रोटियां,
अमीरों के थाली मे मख्खन लगी
गरीब के थाली मे सूख जाती है रोटियां।

दो वक्त के जरूरत के खातिर
जिंदगी बदल जाती है रोटियां
पल पल हर पल अपना अक्स
जीवन दर्पण मे दिखाती है रोटियां।

पैसे के दंभ मे चूर लोगों के हाथों
कचरे के ढेर मे बिखर जाती है रोटियां,
यही नन्हें हाथों मे समा भुख से बेजार
बच्चों के चेहरे खिलाती है रोटियां।

राजा हो या हो रंक
सबके मन भाती है रोटियां,
खुद तपती आग मे
दुसरो को तृप्त कराती रोटियां।

नही कोई वजूद तुम्हारा 
ये दर्शाती है रोटियां,
धर्म और भेदभाव से परे
सबको गले लगाती है रोटियां।


- विवेक असरानी
  नागपुर, महाराष्ट्र 
काव्य 1675980494225275069
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